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शिक्षण अभिवृत्ति (भाग 1) – टॉपिक वाइज मटेरियल

शिक्षण: अवधारणाएं, उद्देश्य, शिक्षण का स्तर (स्मरण शक्ति, समझ और विचारात्मक), विशेषताएं और मूल अपेक्षाएं

(A) सामान्य परिचय

(1) शिक्षण का व्यापक परिप्रेक्ष्य: शिक्षण एक योजनाबद्ध और उद्देश्यपूर्ण प्रक्रिया है, जो केवल ज्ञान के प्रसार तक सीमित नहीं है। इसका लक्ष्य विद्यार्थियों के संज्ञानात्मक, भावनात्मक और सामाजिक पक्षों का संतुलित विकास करना है, ताकि शिक्षा वास्तविक जीवन के लिए उपयोगी बन सके।

(2) शिक्षण के विभिन्न आयाम: इसकी अवधारणा में सूचना-संप्रेषण के साथ-साथ मूल्य-विकास और व्यक्तित्व निर्माण भी निहित हैं। शिक्षण के उद्देश्य, स्मरण, समझ और विचारात्मक स्तर विद्यार्थियों को क्रमशः उच्चतर चिंतन एवं अधिगम की दिशा में आगे बढ़ाते हैं।

(3) आधुनिक संदर्भ में महत्त्व: वर्तमान समय में शिक्षण का स्वरूप विद्यार्थी-केंद्रित, प्रौद्योगिकी-समर्थ और नवाचार-आधारित हो चुका है। इसकी विशेषताएँ और मूल अपेक्षाएँ शिक्षा को न केवल बौद्धिक विकास, बल्कि नैतिकता, रचनात्मकता और आजीवन अधिगम की प्रवृत्ति से भी जोड़ती हैं।

(B) शिक्षण की अवधारणा

(1) शिक्षण का सामान्य अर्थ: शिक्षण एक योजनाबद्ध, उद्देश्यपूर्ण और संगठित प्रक्रिया है जिसके माध्यम से शिक्षक विद्यार्थियों को ज्ञान, कौशल और मूल्य प्रदान करता है। यह केवल सूचना संप्रेषण नहीं, बल्कि अधिगम को सक्रिय और सार्थक बनाने वाली गतिविधि है।

(2) शिक्षक-विद्यार्थी की पारस्परिकता: शिक्षण एक द्विपक्षीय प्रक्रिया है जिसमें शिक्षक और विद्यार्थी दोनों सक्रिय भूमिका निभाते हैं। शिक्षक मार्गदर्शक और सहयोगी होता है, जबकि विद्यार्थी प्रश्न पूछकर, विचार प्रस्तुत कर और भागीदारी के माध्यम से ज्ञान का निर्माण करता है।

(3) अधिगम की सक्रिय प्रक्रिया: शिक्षण केवल रटने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सोचने, समझने और लागू करने की क्षमता विकसित करता है। इसमें संज्ञानात्मक, भावनात्मक और मनोदैहिक पक्षों का समन्वय होता है, जिससे अधिगम स्थायी और प्रभावी बनता है।

(4) उद्देश्यपूर्ण और योजनाबद्ध स्वरूप: शिक्षण हमेशा पूर्व-निर्धारित उद्देश्यों पर आधारित होता है। यह विद्यार्थियों की आवश्यकताओं, क्षमताओं और रुचियों को ध्यान में रखकर डिजाइन किया जाता है, जिससे शिक्षा व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों दृष्टियों से सार्थक बनती है।

(5) आधुनिकता और नवाचार का समावेश: आज शिक्षण में प्रौद्योगिकी, शोध और नवीन विधियों का प्रयोग आवश्यक हो गया है। डिजिटल साधनों और नवाचारपूर्ण तकनीकों से शिक्षण अधिक रोचक, प्रभावी और व्यापक बनकर बदलते समय की आवश्यकताओं को पूरा करता है।

(6) मूल्य और सामाजिक दृष्टि: शिक्षण की अवधारणा केवल बौद्धिक विकास तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका उद्देश्य विद्यार्थियों में नैतिकता, संवेदनशीलता और सामाजिक जिम्मेदारी की भावना को विकसित करना भी है। इस प्रकार यह व्यक्ति और समाज दोनों के लिए उपयोगी सिद्ध होता है।

(C) शिक्षण के उद्देश्य

(1) ज्ञान का संवर्धन: शिक्षण का प्रथम उद्देश्य विद्यार्थियों को व्यवस्थित और वैज्ञानिक ढंग से ज्ञान प्रदान करना है। यह केवल तथ्यात्मक जानकारी तक सीमित नहीं होता, बल्कि छात्रों में बौद्धिक जिज्ञासा और विषय की गहन समझ विकसित करने का माध्यम भी बनता है।

(2) व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास: शिक्षण केवल संज्ञानात्मक विकास तक सीमित नहीं है। इसका लक्ष्य विद्यार्थियों के भावनात्मक, सामाजिक और नैतिक पक्षों को भी सशक्त करना है। इससे विद्यार्थी जीवन की चुनौतियों का सामना करने योग्य संतुलित व्यक्तित्व का निर्माण कर पाते हैं।

(3) आलोचनात्मक चिंतन का विकास: शिक्षण का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य विद्यार्थियों में विश्लेषण, विवेचना और मूल्यांकन की क्षमता उत्पन्न करना है। यह उन्हें केवल जानकारी का उपभोक्ता न बनाकर स्वतंत्र चिंतक और रचनात्मक समस्या-समाधानकर्ता के रूप में विकसित करता है।

(4) सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्माण: शिक्षण से अपेक्षा की जाती है कि यह विद्यार्थियों में सामाजिक चेतना, सहयोग और उत्तरदायित्व की भावना विकसित करे। शिक्षा के माध्यम से वे समाज की समस्याओं को समझकर उनके समाधान की दिशा में सक्रिय भूमिका निभा सकें।

(5) मूल्य और नैतिकता का संवर्धन: शिक्षण विद्यार्थियों में नैतिक मूल्यों और मानवीय संवेदनाओं को प्रबल करने का माध्यम है। इसका उद्देश्य केवल अकादमिक दक्षता नहीं, बल्कि सत्यनिष्ठा, करुणा और नैतिक जिम्मेदारी जैसे जीवन मूल्यों का विकास करना भी है।

(6) आजीवन अधिगम की प्रवृत्ति: आधुनिक संदर्भ में शिक्षण का प्रमुख उद्देश्य विद्यार्थियों को निरंतर सीखने योग्य बनाना है। यह उनमें जिज्ञासा, आत्मनिर्भरता और नई परिस्थितियों के अनुकूलन की क्षमता विकसित करता है, जिससे वे जीवनपर्यंत शिक्षा से जुड़े रहते हैं।

(D) शिक्षण का स्तर

(1) स्मरण शक्ति स्तर: शिक्षण का प्रथम स्तर स्मृति पर आधारित होता है, जिसमें विद्यार्थी तथ्यों, परिभाषाओं और सूचनाओं को याद करता है। यह स्तर बुनियादी ज्ञान अर्जन की नींव रखता है और आगे की उच्चतर संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं के लिए आधार प्रदान करता है।

(2) समझ का स्तर: इस स्तर पर विद्यार्थी केवल तथ्यों को याद नहीं करता, बल्कि उनके अर्थ, व्याख्या और संबंधों को भी समझता है। यह स्तर अवधारणाओं को स्पष्ट करता है तथा छात्रों को वास्तविक जीवन की परिस्थितियों में ज्ञान का उपयोग करने की क्षमता प्रदान करता है।

(3) विचारात्मक स्तर: यह शिक्षण का सर्वोच्च स्तर है, जिसमें विद्यार्थी विश्लेषण, मूल्यांकन और सृजन की क्षमता विकसित करता है। इस स्तर पर छात्र स्वतंत्र चिंतन करता है, समस्याओं का समाधान खोजता है और नए विचारों का निर्माण कर ज्ञान को रचनात्मक दिशा प्रदान करता है।

(E) शिक्षण की विशेषताएँ

(1) उद्देश्यपूर्ण प्रक्रिया: शिक्षण एक योजनाबद्ध और उद्देश्यपूर्ण गतिविधि है। इसका लक्ष्य केवल ज्ञान का संप्रेषण नहीं, बल्कि विद्यार्थियों के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास है। यह शिक्षा को अर्थपूर्ण बनाते हुए बौद्धिक, भावनात्मक और सामाजिक प्रगति सुनिश्चित करता है।

(2) द्विपक्षीय संवाद: शिक्षण शिक्षक और विद्यार्थी के बीच सतत संवाद पर आधारित होता है। यह केवल शिक्षक से सूचना प्रवाह नहीं है, बल्कि प्रश्नोत्तर, सहभागिता और प्रतिक्रिया के माध्यम से सक्रिय शिक्षण-अधिगम वातावरण का निर्माण करता है।

(3) गतिशीलता और लचीलापन: शिक्षण एक गतिशील प्रक्रिया है, जो विद्यार्थियों की रुचि, आवश्यकताओं और क्षमताओं के अनुसार बदलती रहती है। यह स्थिर नहीं है, बल्कि नई परिस्थितियों और तकनीकों को अपनाकर अधिक प्रभावी बनती है।

(4) प्रेरणा और सक्रियता: शिक्षण की सफलता विद्यार्थियों की सक्रिय भागीदारी पर निर्भर करती है। यह प्रेरणा और उत्साह उत्पन्न करता है, जिससे विद्यार्थी केवल जानकारी ग्रहण नहीं करते, बल्कि उसे समझने और लागू करने में भी सक्रिय रहते हैं।

(5) बहुआयामी प्रकृति: शिक्षण संज्ञानात्मक, भावनात्मक और मनोदैहिक पक्षों को समाहित करता है। यह केवल बौद्धिक गतिविधि नहीं, बल्कि मूल्य शिक्षा, व्यवहार निर्माण और सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना को भी सुदृढ़ करता है।

(6) आधुनिकता और नवाचार: आज के संदर्भ में शिक्षण प्रौद्योगिकी, शोध और नवाचार से गहराई से जुड़ा हुआ है। यह विद्यार्थी-केंद्रित दृष्टिकोण, आलोचनात्मक चिंतन और आजीवन अधिगम की प्रवृत्ति को बढ़ावा देकर शिक्षा को समसामयिक और प्रासंगिक बनाता है।

(F) शिक्षण की मूल अपेक्षाएँ

(1) स्पष्ट उद्देश्य निर्धारण: शिक्षण की पहली अपेक्षा यह है कि इसके लक्ष्य स्पष्ट रूप से परिभाषित हों। शिक्षण केवल सूचना देने की प्रक्रिया न होकर, विद्यार्थियों के बौद्धिक, सामाजिक और नैतिक विकास की दिशा में संगठित और उद्देश्यपूर्ण होना चाहिए।

(2) विद्यार्थी-केंद्रित दृष्टिकोण: शिक्षण की मूल अपेक्षा है कि यह शिक्षार्थी की रुचि, क्षमता और आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर किया जाए। विद्यार्थी सक्रिय भागीदार बने और उसे सीखने में स्वायत्तता तथा जिम्मेदारी का अनुभव हो।

(3) उपयुक्त शिक्षण विधियों का प्रयोग: प्रभावी शिक्षण के लिए विविध और उपयुक्त विधियों का प्रयोग आवश्यक है। शिक्षण को केवल व्याख्यान तक सीमित न रखकर, इसमें चर्चा, प्रयोगात्मक गतिविधियाँ और प्रौद्योगिकी का उपयोग शामिल होना चाहिए।

(4) प्रेरणा और उत्साह का संचार: शिक्षण की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि यह विद्यार्थियों को कितना प्रेरित और उत्साहित करता है। शिक्षा प्रक्रिया को इस प्रकार होना चाहिए कि विद्यार्थी सीखने में रुचि बनाए रखें और आत्मप्रेरित बनें।

(5) मूल्य और सामाजिक उत्तरदायित्व का विकास: शिक्षण से अपेक्षा की जाती है कि यह केवल संज्ञानात्मक क्षमता ही नहीं, बल्कि नैतिक मूल्यों, मानवीय संवेदनाओं और सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना को भी मजबूत करे। इससे विद्यार्थी जिम्मेदार नागरिक बनते हैं।

(6) नवीनता और अनुकूलनशीलता: आधुनिक युग में शिक्षण की अपेक्षा है कि यह परिवर्तित सामाजिक और तकनीकी परिस्थितियों के अनुरूप लचीला हो। शिक्षण पद्धतियों में नवाचार और प्रौद्योगिकी का एकीकरण विद्यार्थियों को समसामयिक चुनौतियों के लिए तैयार करता है।

(G) शिक्षक की भूमिका

(1) ज्ञान प्रदाता और मार्गदर्शक: शिक्षक की प्राथमिक भूमिका ज्ञान का संप्रेषण करना है। वह केवल सूचना देने वाला नहीं, बल्कि विद्यार्थियों को ज्ञान के प्रयोग, विश्लेषण और अनुप्रयोग की दिशा में मार्गदर्शन प्रदान करने वाला सक्रिय सहयोगी होता है।

(2) प्रेरक और उत्साहवर्धक: शिक्षक विद्यार्थियों में सीखने की जिज्ञासा और आत्मविश्वास जगाने का कार्य करता है। उसकी भूमिका केवल शिक्षा तक सीमित नहीं, बल्कि वह विद्यार्थियों को निरंतर प्रेरित कर उन्हें आत्मप्रेरित अधिगम की दिशा में अग्रसर करता है।

(3) मूल्य संवाहक: शिक्षक समाज और संस्कृति के मूल्यों का संवाहक होता है। उसकी जिम्मेदारी है कि वह विद्यार्थियों में नैतिकता, मानवता और सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना विकसित करे, ताकि वे जिम्मेदार और संवेदनशील नागरिक बन सकें।

(4) नवाचारकर्ता और तकनीक उपयोगकर्ता: आधुनिक युग में शिक्षक की भूमिका प्रौद्योगिकी और नवाचार को शिक्षा में एकीकृत करने की है। वह डिजिटल संसाधनों का उपयोग कर शिक्षण को प्रभावी और रोचक बनाता है, जिससे शिक्षा की गुणवत्ता और सुलभता बढ़ती है।

(5) शोधकर्ता और चिंतक: शिक्षक की एक महत्वपूर्ण भूमिका शोध और चिंतनशील दृष्टिकोण को अपनाने की है। वह नए शैक्षिक प्रयोगों और विधियों के माध्यम से शिक्षण की गुणवत्ता में सुधार करता है और विद्यार्थियों को अनुसंधानमुखी दृष्टिकोण प्रदान करता है।

(6) मार्गदर्शक और परामर्शदाता: शिक्षक विद्यार्थियों के व्यक्तिगत, शैक्षणिक और व्यावसायिक जीवन में मार्गदर्शन देता है। वह परामर्शदाता के रूप में उनकी समस्याओं का समाधान करता है और उन्हें जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में सही निर्णय लेने की क्षमता प्रदान करता है।

(H) निष्कर्ष

(1) शिक्षण का समग्र दृष्टिकोण: शिक्षण की अवधारणाएँ, उद्देश्य और स्तर शिक्षा प्रणाली की दिशा तय करते हैं। यह विद्यार्थियों को ज्ञान, समझ और रचनात्मक चिंतन में सक्षम बनाते हुए उनके बहुआयामी विकास को सुनिश्चित करता है।

(2) विशेषताओं और अपेक्षाओं का महत्त्व: शिक्षण की विशेषताएँ इसे संवादात्मक, गतिशील और मूल्यनिष्ठ बनाती हैं, जबकि मूल अपेक्षाएँ इसे आधुनिक संदर्भ के अनुरूप लचीला और शोधपरक बनाए रखती हैं। इससे शिक्षा की प्रासंगिकता और प्रभावशीलता निरंतर बनी रहती है।

(3) शिक्षा की गुणवत्ता में योगदान: शिक्षण की सही अवधारणा और स्पष्ट उद्देश्य शिक्षा प्रणाली की नींव को सुदृढ़ करते हैं। इससे विद्यार्थी ज्ञानवान, रचनात्मक और उत्तरदायी नागरिक के रूप में विकसित होते हैं, जो समाज की बदलती आवश्यकताओं को पूरा करने में सक्षम होते हैं।

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