प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत : पुरातात्विक स्रोत
पुरातात्विक स्रोत प्राचीन भारतीय इतिहास के पुनर्निर्माण में अत्यंत विश्वसनीय और ठोस प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। ये स्रोत उन कालखंडों के बारे में भी जानकारी देते हैं जहाँ लिखित साहित्य उपलब्ध नहीं होता। उत्खनन से प्राप्त वस्तुएं, अभिलेख, सिक्के, स्मारक और कलाकृतियां समाज, अर्थव्यवस्था, राजनीति और संस्कृति के प्रामाणिक साक्ष्य प्रदान करती हैं।
अभिलेख इतिहास का प्रमुख पुरातात्विक स्रोत हैं, जो पत्थर, धातु या स्तंभों पर उत्कीर्ण होते थे। अशोक के शिलालेख मौर्य प्रशासन, धम्म और सामाजिक नीतियों की जानकारी देते हैं। पुरालेखशास्त्र के माध्यम से शासकों के राजनीतिक विस्तार, दान और शासन-व्यवस्था का वैज्ञानिक विश्लेषण किया जाता है, जिससे इतिहास अधिक प्रमाणिक बनता है।
सिक्के आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक जीवन का महत्वपूर्ण आधार प्रस्तुत करते हैं। मुद्राशास्त्र से शासकों के नाम, उपाधियां, व्यापार, मुद्रा प्रणाली और सांस्कृतिक प्रभावों का ज्ञान मिलता है। भारत-यूनानी शासकों तथा अन्य राजवंशों के बारे में कई महत्त्वपूर्ण तथ्य सिक्कों से ही प्राप्त हुए हैं, जिससे राजनीतिक इतिहास की पुष्टि होती है।
स्मारक और कलाकृतियां स्थापत्य, कला कौशल और धर्म की उन्नति का सजीव प्रमाण हैं। सांची स्तूप, अजंता–एलोरा की गुफाएं धार्मिक विश्वासों और तकनीकी प्रगति को दर्शाती हैं। उत्खनन से मिले मिट्टी के बर्तन, आभूषण, औज़ार और घरेलू वस्तुएं आम जनता के जीवन और संस्कृति का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करती हैं।
इस प्रकार, पुरातात्विक अध्ययन समाज की संरचना, तकनीकी उन्नति और सांस्कृतिक मूल्यों को प्रत्यक्ष रूप में सामने लाता है। साहित्यिक स्रोत जहाँ कई बार पक्षपातपूर्ण हो सकते हैं, वहीं पुरातात्विक साक्ष्य निष्पक्ष और भौतिक प्रमाण देते हैं। इस प्रकार, ये भारतीय इतिहास को वैज्ञानिक, वस्तुनिष्ठ और अधिक विश्वसनीय रूप में स्थापित करने का महत्त्वपूर्ण आधार हैं।
(I) भौतिक अवशेष
प्राचीन भारत के भौतिक अवशेष उस समय के समाज, संस्कृति, तकनीक और स्थापत्य कला की प्रत्यक्ष जानकारी प्रदान करते हैं। इन अवशेषों के आधार पर इतिहासकार उस युग के जीवन, नगर योजना, सामाजिक संरचना और आर्थिक गतिविधियों को वस्तुनिष्ठ रूप में समझ पाते हैं। यह स्रोत भारतीय सभ्यता की निरंतरता और उसके विकास का वैज्ञानिक प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।
टीलों में दबे अवशेष प्राचीन भारतीय इतिहास के प्रमुख आधार हैं। इनमें विभिन्न सांस्कृतिक परतें मिलती हैं, जो कालक्रमिक विकास का क्रम स्पष्ट करती हैं। उत्खनन से प्राप्त स्तर यह दिखाते हैं कि समाज ने समय के साथ तकनीकी, आर्थिक और सामाजिक रूप से कैसे प्रगति की। इसलिए टीले इतिहास की खोज के लिए अत्यंत मूल्यवान स्रोत हैं।
एकल-संस्कृतिक टीले उस क्षेत्र की एक प्रमुख संस्कृति को दर्शाते हैं। इनसे प्राप्त अवशेष उस संस्कृति की जीवन शैली, धार्मिक मान्यताओं और आर्थिक ढाँचे को समझने में सहायता करते हैं। जैसे- पेंटेड ग्रे वेयर, सातवाहन और कुषाण काल के अवशेष भारतीय समाज की विशिष्ट पहचान और सांस्कृतिक निरंतरता को उजागर करते हैं।
मुख्य-संस्कृतिक टीले उस स्थिति को दर्शाते हैं जहाँ एक संस्कृति प्रधान रहती है और अन्य संस्कृतियों का मामूली प्रभाव दिखाई देता है। यह मिश्रित सांस्कृतिक प्रभाव समाज के परिवर्तनशील स्वरूप को दर्शाता है। ऐसे स्थल सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक संक्रमण को क्रमबद्ध रूप से समझने में उपयोगी स्रोत सिद्ध होते हैं।
बहु-संस्कृतिक टीले विभिन्न कालों और संस्कृतियों के सम्मिलित विकास को प्रदर्शित करते हैं। इनमें एक ही स्थल पर अनेक समुदायों के अवशेष मिलते हैं, जिससे विभिन्न सामाजिक व धार्मिक परंपराओं का तुलनात्मक अध्ययन संभव होता है। इस प्रकार, यह स्थल भारतीय समाज में विविधता और अंतःसंस्कृतिक समन्वय का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।
टीलों की खुदाई दो विधियों से की जाती है—अनुलंब और क्षैतिज। अनुलंब खुदाई से क्रमिक सांस्कृतिक परतें और कालक्रम स्पष्ट होते हैं, जबकि क्षैतिज उत्खनन से पूरे स्थल की व्यापक सांस्कृतिक रूपरेखा मिलती है। दोनों विधियां मिलकर प्राचीन जीवन और समाज के समग्र स्वरूप को उजागर करती हैं।
क्षैतिज उत्खनन अधिक खर्चीला होने के कारण सीमित रूप से उपयोग किया जाता है, फिर भी जहाँ यह किया गया है वहाँ से समाज की आर्थिक संरचना, स्थापत्य और जीवन पद्धति का विस्तृत ज्ञान प्राप्त हुआ है। अनुलंब उत्खनन समय-क्रम को स्पष्ट करता है, जिससे सामाजिक परिवर्तन की गति और दिशा का अध्ययन सम्भव होता है।
अवशेषों की संरक्षा उनके भौगोलिक पर्यावरण पर निर्भर करती है। शुष्क क्षेत्रों जैसे पश्चिमोत्तर भारत में अवशेष बेहतर संरक्षित मिले, जबकि गंगा मैदान और डेल्टाई क्षेत्रों में आर्द्रता ने मिट्टी एवं लोहे की वस्तुओं को क्षतिग्रस्त कर दिया। दक्षिण भारत के महापाषाण अवशेष लौह युग और प्रारंभिक सामाजिक गतिविधियों का प्रमाण देते हैं।
पुरातत्व विज्ञान वैज्ञानिक विधियों द्वारा टीलों और अवशेषों का अध्ययन करता है। रेडियो-कार्बन (C14) तकनीक से प्राप्त वस्तुओं की उम्र का निर्धारण होता है, जिससे ऐतिहासिक घटनाओं और सांस्कृतिक स्तरों को सत्यापित किया जाता है। पौधों, पराग, धातु और पशु अवशेषों का विश्लेषण प्राचीन कृषि, जलवायु और तकनीकी विकास का प्रमाण प्रस्तुत करता है।
इस प्रकार, भौतिक अवशेष प्राचीन भारतीय समाज की संपूर्ण झलक प्रदान करते हैं। इनके आधार पर इतिहासकार जीवन, आस्था, उत्पादन, व्यापार, स्थापत्य, तकनीक और सांस्कृतिक विकास को सटीक रूप से पुनर्निर्मित करते हैं। वैज्ञानिक परीक्षण और उत्खनन पद्धतियां इतिहास लेखन को प्रमाणिक और तथ्य-आधारित बनाती हैं, जिससे भारत की सभ्यतागत विरासत का वास्तविक स्वरूप सामने आता है।
(II) अन्वेषण
अन्वेषण प्राचीन भारतीय इतिहास की खोज का प्रारंभिक और अत्यंत आवश्यक चरण है, जो सतह पर उपलब्ध संकेतों के आधार पर संभावित ऐतिहासिक स्थलों की पहचान करता है। यह उत्खनन के पूर्व आवश्यक जानकारी प्रदान करता है, जिससे दबे हुए सांस्कृतिक साक्ष्यों तक व्यवस्थित रूप से पहुँचा जा सकता है और अतीत के बारे में वस्तुनिष्ठ ज्ञान प्राप्त होता है।
अन्वेषण की पारंपरिक विधियों में सतह सर्वेक्षण प्रमुख है, जिसमें स्थल पर पैदल चलकर बिखरी कलाकृतियों और भू-आकृतिक विशेषताओं का अध्ययन किया जाता है। वहीं वैज्ञानिक तकनीकों में भू-भेदी रडार, उपग्रह चित्रण और हवाई फोटोग्राफी शामिल हैं, जो जमीन के भीतर छिपी संरचनाओं की पहचान बिना खुदाई के संभव बनाती हैं।
अन्वेषण केवल भौतिक साक्ष्यों की पहचान ही नहीं करता, बल्कि प्राचीन पर्यावरण को समझने में भी मदद करता है। जीवाश्मों, परागकणों और पौधों के अवशेषों का अध्ययन जलवायु, कृषि तथा मानव-पर्यावरण संबंधों को स्पष्ट करता है, जिससे प्राचीन समाज की जीवनशैली और आर्थिक गतिविधियों की सटीक जानकारी मिलती है।
भारत में पुरातात्विक अन्वेषण का व्यवस्थित इतिहास अलेक्जेंडर कनिंघम से शुरू होता है, जिन्हें भारतीय पुरातत्व का जनक माना जाता है। उनके नेतृत्व में प्राचीन स्थलों की पहचान और संरक्षण की दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य हुए, जिसने भारतीय सभ्यताओं के वैज्ञानिक अध्ययन के लिए आधार तैयार किया।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, संस्कृति मंत्रालय के अधीन राष्ट्रीय संस्था है, जो पुरातात्विक अनुसंधान, अन्वेषण, उत्खनन और स्मारकों के संरक्षण का कार्य करती है। 1861 में स्थापित यह संस्था राष्ट्र की सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है और आज भी अनेक ऐतिहासिक स्थलों की खोज व देखभाल कर रही है।
(III) उत्खनन
उत्खनन प्राचीन भारतीय इतिहास के अध्ययन की वैज्ञानिक विधि है, जिसके माध्यम से मिट्टी की परतों के नीचे दबे अवशेषों को निकालकर इतिहास का पुनर्निर्माण किया जाता है। यह विशेष रूप से उन कालों के लिए महत्वपूर्ण है जहाँ लिखित साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं। इस प्रकार, खुदाई से प्राप्त संरचनाएं और वस्तुएं इतिहास के तथ्यात्मक प्रमाण प्रस्तुत करती हैं और हमारे ज्ञान को विश्वसनीय बनाती हैं।
उत्खनन मुख्यतः दो प्रकार से किया जाता है: ऊर्ध्वाधर और क्षैतिज। ऊर्ध्वाधर खुदाई से किसी स्थल की क्रमिक सांस्कृतिक परतों का ज्ञान मिलता है, जिससे उस क्षेत्र के विकासक्रम को समझा जा सकता है। क्षैतिज उत्खनन बड़े क्षेत्र को विस्तृत रूप से खोलता है, जिससे किसी खास समय के नगर-योजना और समाज का संपूर्ण चित्र सामने आता है।
भारत में हुए प्रमुख उत्खननों ने इतिहास की दिशा बदल दी। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से प्राप्त अवशेषों ने सिंधु घाटी सभ्यता की उन्नत शहरी संस्कृति का प्रमाण दिया। तक्षशिला, राजगीर और नालंदा की खुदाई ने बौद्ध एवं अन्य प्राचीन राजवंशों के राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास को स्पष्ट किया।
उत्खनन से मिली वस्तुएं जैसे मिट्टी के बर्तन, धातु उपकरण, आभूषण, मूर्तियां और भवन अवशेष लोगों की सामाजिक व्यवस्था, धार्मिक मान्यताओं और आर्थिक गतिविधियों पर रोशनी डालते हैं। इनसे यह भी पता चलता है कि प्राचीन लोग तकनीकी रूप से कितने विकसित थे और उनका जीवन किस प्रकार व्यवस्थित था।
वैज्ञानिक तकनीकों जैसे रेडियो-कार्बन डेटिंग का प्रयोग वस्तुओं की वास्तविक आयु का निर्धारण करता है, जिससे इतिहास को कालानुक्रमिक ढंग से व्यवस्थित करना संभव होता है। इस प्रकार, उत्खनन न केवल भौतिक साक्ष्य खोजता है, बल्कि उन्हें प्रमाणिक रूप से विश्लेषित कर इतिहास को अधिक सशक्त और वैज्ञानिक आधार प्रदान करता है।
(IV) अभिलेख
अभिलेख प्राचीन भारत के विश्वसनीय स्रोत माने जाते हैं, जिनके माध्यम से शासन, प्रशासन और सामाजिक संरचना की स्पष्ट जानकारी मिलती है। ये पत्थर, स्तंभ, चट्टानों, मंदिरों और ताम्रपत्रों पर अंकित पाए जाते हैं। अभिलेखों का अध्ययन इतिहासकारों को प्राचीन समाज के वास्तविक स्वरूप और राजनीतिक परिस्थितियों को समझने में महत्वपूर्ण सहायता प्रदान करता है।
पुरालेखशास्त्र अभिलेखों के वैज्ञानिक अध्ययन का क्षेत्र है, जबकि पुरालिपिशास्त्र उनकी लिपि, भाषा और काल का निर्धारण करता है। अभिलेखों में सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक गतिविधियों के प्रत्यक्ष प्रमाण मिलते हैं, जिससे प्राचीन भारतीय इतिहास की विश्वसनीय पुनर्निर्मिति की जाती है। ये विधाएं इतिहास लेखन की आधारशिला मानी जाती हैं।
प्रारंभिक अभिलेख अधिकतर पत्थरों पर उत्कीर्ण मिलते हैं और समय के साथ ताम्रपत्रों का उपयोग बढ़ा। दक्षिण भारत में मंदिरों और प्रस्तर स्तंभों पर मिले स्थायी अभिलेख धार्मिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों की स्थायी स्मृति के रूप में संरक्षित हैं। ये अभिलेख तत्कालीन जीवन की झलक स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करते हैं।
अभिलेखों का संरक्षण संग्रहालयों और पुरालेख कार्यालयों में किया गया है। मैसूर का मुख्य पुरालेख कार्यालय दक्षिण भारतीय अभिलेखों का प्रमुख केंद्र है। शुरुआती अभिलेख प्राकृत भाषा में लिखे गए, जो तीसरी सदी ईसा पूर्व के राजनीतिक और प्रशासनिक स्वरूप को उजागर करते हैं। इन अभिलेखों से प्रारंभिक राज्य व्यवस्थाएं ज्ञात होती हैं।
संस्कृत अभिलेख दूसरी सदी ईसा पूर्व से लोकप्रिय हुए और चौथी-पाँचवीं सदी में व्यापक रूप से लिखे गए। प्राकृत का प्रयोग बंद नहीं हुआ और नौवीं-दसवीं सदी में प्रादेशिक भाषाएं अभिलेखों की प्रमुख भाषा बनीं। इससे क्षेत्रीय संस्कृतियों के विकास तथा भाषाई विविधता का स्पष्ट प्रमाण मिलता है, जो समाज की बदलती संरचना दर्शाता है।
मौर्य, मौर्योत्तर और गुप्त काल के अभिलेख व्यवस्थित रूप से संकलित किए गए, जबकि गुप्तोत्तर काल के अभिलेखों का संकलन उतना सुव्यवस्थित नहीं हो सका। दक्षिण भारत में स्थानक्रमिक अभिलेख सूची प्रकाशित हुई है। कई अभिलेख अभी भी प्रकाशन की प्रतीक्षा में हैं, जो प्राचीन इतिहास के विस्तार की संभावनाएं दर्शाते हैं।
हड़प्पा संस्कृति के अभिलेख अब तक पढ़े नहीं जा सके, संभवतः वे भावचित्रात्मक लिपि में हैं। अशोक के अधिकांश शिलालेख ब्राह्मी लिपि में बाएं से दाएं लिखे गए हैं। कुछ शिलालेख खरोष्ठी, यूनानी और आरामाइक लिपियों में भी उत्कीर्ण हैं। इन विविध लिपियों का ज्ञान अभिलेख अध्ययन के लिए अनिवार्य माना जाता है।
सबसे प्राचीन अभिलेख हड़प्पा सभ्यता की मुहरों पर मिलते हैं। पढ़े जा सकने वाले प्राचीनतम अभिलेख अशोक के तृतीय शताब्दी ईसा पूर्व के शिलालेख हैं, जिन्हें 1837 में जेम्स प्रिन्सेप ने सफलतापूर्वक पढ़ा। इन अभिलेखों से तत्कालीन शासन व्यवस्था और सामाजिक नीतियों की जानकारी प्राप्त होती है।
अभिलेख मुख्यतः प्रशासनिक आदेश, धार्मिक संदेश और सामाजिक निर्देशों के रूप में मिलते हैं। अशोक के धम्म-लेख शासन और जनता के लिए जारी किए गए थे। प्रशस्तियां राजाओं की उपलब्धियों और यश का वर्णन करती हैं, जैसे- प्रयाग-प्रशस्ति। दान-पत्र अभिलेख सामाजिक और आर्थिक ढांचे की विश्वसनीय झलक प्रस्तुत करते हैं।
भूमिदान अभिलेख विशिष्ट महत्व रखते हैं, जिनमें राजाओं और सामंतों द्वारा मंदिरों, विहारों, ब्राह्मणों और अधिकारियों को दी गई भूमि तथा राजस्व का उल्लेख मिलता है। ये अभिलेख तत्कालीन प्रशासनिक ढांचे, भूमि-स्वामित्व संबंधों और आर्थिक संरचना को समझने में सहायक हैं। इनसे प्राचीन भारतीय समाज का बहुआयामी स्वरूप प्रकट होता है।
अभिलेख के प्रकार
पुरालेख (अभिलेख) कई प्रकार के होते हैं, जिन्हें मुख्य रूप से चार श्रेणियों में बाँटा जा सकता है:
(1) राज्यादेश एवं प्रशासनिक निर्णय: अभिलेखों के प्रकारों में सबसे महत्वपूर्ण श्रेणी राज्यादेश और प्रशासनिक निर्णय है। इन अभिलेखों में शासन से संबंधित निर्देश, सामाजिक-धार्मिक नियम तथा प्रशासनिक नीतियां दर्ज होती थीं। अशोक के अभिलेख इस श्रेणी का श्रेष्ठ उदाहरण हैं, जिनमें उन्होंने जनता के आचरण, नैतिकता और शासन व्यवस्था के संबंध में अनेक महत्वपूर्ण आदेश जारी किए थे।
(2) आनुष्ठानिक एवं धार्मिक अभिलेख: दूसरी श्रेणी में धार्मिक और आनुष्ठानिक अभिलेख आते हैं, जिन्हें विभिन्न सम्प्रदायों, जैसे- बौद्ध, जैन, शैव और वैष्णव के अनुयायियों द्वारा स्तंभों, चट्टानों, मंदिरों, मूर्तियों या प्रस्तर-फलकों पर उत्कीर्ण कराया जाता था। ये अभिलेख धार्मिक गतिविधियों, अनुष्ठानों, श्रद्धा और धार्मिक परंपराओं के संरक्षण का महत्त्वपूर्ण प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।
(3) प्रशस्तियां: प्रशस्ति अभिलेख राजाओं और विजेताओं की उपलब्धियों, गुणों, युद्ध-विजय और प्रभावशाली कार्यों का विस्तृत वर्णन करते हैं। ये अभिलेख प्रायः राजाओं की महानता को उजागर करते हैं, जबकि उनकी कमजोरियों या पराजयों का उल्लेख नहीं करते। चन्द्रगुप्त द्वितीय की प्रयाग-प्रशस्ति इस प्रकार, की उत्कृष्ट और ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण प्रशस्ति है।
(4) दान अभिलेख: दान अभिलेखों में राजाओं, राजपरिवारों, सामंतों, व्यापारियों और कारीगरों द्वारा धार्मिक व सामाजिक हित के लिए दिए गए दान का विवरण दर्ज होता था। इनमें धन, भूमि, स्वर्ण, पशु, वस्त्र या अन्य मूल्यवान वस्तुओं के दान का उल्लेख मिलता है। इन अभिलेखों से तत्कालीन समाज में दान-परंपरा और धार्मिक संस्थानों की आर्थिक स्थिति का पता चलता है।
| अभिलेख | शासक | विषय |
| हाथीगुम्फा अभिलेख | खारवेल | खारवेल के शासन की घटनाओं का क्रमबद्ध विवरण |
| जूनागढ़ अभिलेख (गिरनार अभिलेख) | रुद्रदामन | इसमें रुद्रदामन की विजयों, व्यक्तित्व एवं कृतित्व का विवरण प्राप्त होता है |
| नासिक अभिलेख | गौतमी बलश्री (रचनाकार) | सातवाहनकालीन घटनाओं का विवरण (गौतमीपुत्र शातकर्णी से संबंधित) |
| प्रयाग स्तंभ लेख | समुद्रगुप्त | इसके विजय एवं नीतियों का पूरा विवरण |
| ऐहोल अभिलेख | पुलकेशिन द्वितीय | हर्ष एवं पुलकेशिन द्वितीय के युद्ध का विवरण |
| भीतरी स्तंभ लेख | स्कंदगुप्त | इसके जीवन की अनेक महत्त्वपूर्ण घटनाओं का विवरण |
| मंदसौर अभिलेख | मालवा नरेश यशोधर्मन | सैनिक उपलब्धियों का वर्णन |
(V) सिक्के
प्राचीन भारत में सिक्के आर्थिक व्यवस्था, व्यापार और राजनीतिक संरचना को समझने का महत्वपूर्ण साधन रहे हैं। तांबा, चाँदी, सोना और सीसा प्रमुख धातुएं थीं। प्रारंभिक सिक्कों पर केवल प्रतीक मिलते थे, जबकि बाद के सिक्कों पर शासकों और देवताओं के चित्र उकेरे जाने लगे। मुद्राशास्त्र इनके स्वरूप, उपयोग और ऐतिहासिक महत्त्व का वैज्ञानिक अध्ययन करता है।
कुषाण काल में मिट्टी के सिक्का-साँचे बड़े पैमाने पर प्राप्त हुए, जिनसे सिक्का निर्माण की उन्नत तकनीक का पता चलता है। गुप्तोत्तर काल में यह प्रथा कम हो गई। इन सिक्कों और सांचों से राजनीतिक विकास, प्रशासनिक ढांचा और समकालीन आर्थिक गतिविधियों का स्पष्ट प्रमाण मिलता है, जो उस युग के सामाजिक जीवन को समझने में सहायक हैं।
प्राचीन भारत में बैंकिंग व्यवस्था विकसित न होने के कारण लोग अपने धातु धन को मिट्टी या कांसे के पात्रों में सुरक्षित रखते थे। पुरातत्व खुदाइयों में मिले ऐसे निधि-भंडारों में विदेशी सिक्के भी मिले हैं, जो व्यापक व्यापारिक संपर्कों और आर्थिक नेटवर्क की पुष्टि करते हैं। यह प्राचीन अंतरराष्ट्रीय व्यापार की दिशा और प्रसार का संकेत प्रस्तुत करता है।
सिक्कों का संरक्षण देश के प्रमुख संग्रहालयों जैसे- कलकत्ता, पटना, दिल्ली, लखनऊ, जयपुर और मुंबई में किया गया है। उपनिवेश काल में ब्रिटिश अधिकारियों ने अनेक सिक्के इंग्लैंड और अन्य देशों में पहुँचा दिए। यह संग्रह प्राचीन भारतीय आर्थिक और राजनीतिक इतिहास के अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण आधार सामग्री प्रदान करते हैं।
हिंद-यवन शासकों के सिक्के उत्तरी अफगानिस्तान से भारत तक के राजनीतिक विस्तार और सांस्कृतिक संपर्क का प्रमाण देते हैं। दूसरी और पहली शताब्दी ईसा-पूर्व के सिक्कों से विदेशी शासन, प्रशासनिक ढांचे और व्यापारिक नीतियों की समझ विकसित होती है। इनसे यह भी ज्ञात होता है कि भारतीय उपमहाद्वीप का बाहरी शक्तियों से घनिष्ठ संपर्क था।
सिक्कों से दान-दक्षिणा, वेतन, व्यापारिक लेन-देन और सामाजिक-आर्थिक संबंधों की स्पष्ट जानकारी मिलती है। कुछ सिक्के व्यापारिक संघों द्वारा राजकीय अनुमति से जारी किए जाते थे, जिससे शिल्प और वाणिज्य के विकास का पता चलता है। ये प्रमाण आर्थिक उन्नति, सामाजिक संरचना और व्यापारिक संगठनों की भूमिका को रेखांकित करते हैं।
मौर्योत्तर काल में सिक्कों की संख्या में बड़ी वृद्धि हुई। सीसा, पोटिन, तांबा, चाँदी और सोने के सिक्कों का व्यापक प्रचलन था, जिससे वाणिज्य की समृद्धि और व्यापार नेटवर्क के विस्तार का संकेत मिलता है। गुप्त शासकों द्वारा सोने के सिक्कों का अत्यधिक उत्पादन उस काल की आर्थिक स्थिरता और समृद्धि का प्रमुख प्रतीक माना जाता है।
गुप्तोत्तर काल में सिक्कों की कमी आर्थिक गतिविधियों की मंदी और राजनीतिक अस्थिरता की ओर संकेत करती है। व्यापार और वाणिज्य के कमजोर होने से धातु-निर्माण और सिक्का उत्पादन में गिरावट आई। यह परिवर्तन उस दौर की सामाजिक-आर्थिक संरचना तथा राज्य व्यवस्था में आए उतार-चढ़ाव को स्पष्ट रूप से प्रतिबिंबित करता है।
सिक्कों पर अंकित धार्मिक प्रतीक, देवताओं के चित्र और समृद्धि के चिह्न तत्कालीन धार्मिक विश्वासों, कलात्मक शैली और संस्कृति का दर्पण हैं। कला-कौशल, धार्मिक धारणाओं और सामाजिक मूल्यों के अध्ययन में ये महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये सिक्के प्राचीन भारत की सांस्कृतिक उन्नति और धार्मिक विविधता के प्रमाण के रूप में कार्य करते हैं।
इस प्रकार, प्राचीन भारत के सिक्के न केवल आर्थिक और राजनीतिक प्रणाली का आधार हैं, बल्कि ये सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक प्रगति के महत्वपूर्ण प्रमाण भी हैं। मुद्राशास्त्र का अध्ययन इनकी ऐतिहासिक, आर्थिक और सांस्कृतिक दृष्टि से व्यापक समझ प्रदान करता है।
(VI) स्मारक एवं भवन
प्राचीन भारतीय स्मारक और भवन तत्कालीन समाज, धर्म और प्रशासन का जीवंत दस्तावेज हैं। स्तूप, मंदिर, महल और किले न केवल स्थापत्य कौशल दर्शाते हैं, बल्कि सांस्कृतिक आदान-प्रदान, सामाजिक संरचना और धार्मिक जीवन की व्यापक जानकारी प्रदान करते हैं। इनकी अध्ययन से इतिहास के कई पहलुओं को समझना संभव होता है।
अशोक के स्तूप और शिलालेख प्राचीन प्रशासन, धर्म और न्याय व्यवस्था के महत्वपूर्ण प्रमाण हैं। ये स्मारक मौर्य कालीन शासन तंत्र, धर्म प्रचार और सामाजिक नियंत्रण के बारे में जानकारी देते हैं। इनके अध्ययन से प्राचीन प्रशासनिक ढांचे और राजनीतिक व्यवस्थाओं का समग्र चित्र सामने आता है, जो इतिहास के शोध में अमूल्य योगदान देता है।
गुप्तकालीन मंदिर और महल स्थापत्य कला, शिल्पकला और सांस्कृतिक समृद्धि के अद्वितीय उदाहरण हैं। इन स्मारकों की भित्ति नक्काशी, स्तंभ सजावट और मूर्तिकला धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन के विभिन्न पहलुओं को स्पष्ट रूप से दर्शाती है। यह स्थापत्य कला प्राचीन भारतीय समाज की कलात्मक और तकनीकी प्रगति को उजागर करती है।
दक्षिण भारत के तंजावुर और हम्पी के मंदिर स्थापत्य कला और मूर्तिकला का उत्कृष्ट संगम प्रस्तुत करते हैं। ये स्मारक धार्मिक भक्ति, सांस्कृतिक आदान-प्रदान और सामाजिक संरचना का मूल्यवान दस्तावेज हैं। इनके अध्ययन से क्षेत्रीय कला, धार्मिक प्रथाएं और समाजिक जीवन की सूक्ष्म जानकारी प्राप्त होती है, जो इतिहास की समझ को गहरा करती है।
महापाषाण स्मारक और कब्र स्थल मृतक संस्कार, धार्मिक विश्वास और सामाजिक संरचना का प्रमाण देते हैं। इनके निर्माण और संरचना प्राचीन जीवन और संस्कृति का वास्तविक चित्र प्रस्तुत करते हैं। यह स्मारक ऐतिहासिक अनुसंधान और पुरातात्विक अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण स्रोत हैं, जो समाज के रीति-रिवाजों और धार्मिक प्रथाओं की जानकारी देते हैं।
मठ और स्तूप निर्माण में ईंट और पत्थर का व्यापक प्रयोग तकनीकी और सांस्कृतिक प्रगति का संकेत है। निर्माण की तकनीक प्राचीन समाज की वास्तुकला, संसाधन प्रबंधन और तकनीकी दक्षता को दर्शाती है। इससे यह स्पष्ट होता है कि स्थापत्य कला के साथ-साथ समाज की संगठन क्षमता और तकनीकी ज्ञान भी अत्यधिक विकसित था।
राजाओं द्वारा निर्मित महल और किले राजनीतिक शक्ति, प्रशासनिक नियंत्रण और सामरिक रणनीति का प्रतीक हैं। इनके अध्ययन से साम्राज्य, प्रशासनिक संगठन और सैन्य संरचना का विस्तृत ज्ञान प्राप्त होता है। यह जानकारी इतिहासकारों को प्राचीन शासन और सामरिक रणनीति को समझने में महत्वपूर्ण मार्गदर्शन प्रदान करती है।
स्थानीय और विदेशी स्थापत्य शैलियों का मिश्रण प्राचीन स्मारकों में स्पष्ट दिखाई देता है। यह मिश्रण प्राचीन समाज में सांस्कृतिक आदान-प्रदान, तकनीकी प्रगति और सामाजिक चेतना का मूल्यवान प्रमाण है। इस मिश्रण से यह ज्ञात होता है कि विभिन्न सभ्यताओं और संस्कृतियों का प्रभाव भारतीय स्थापत्य और समाज पर पड़ा था।
स्मारक और भवनों का अध्ययन धार्मिक, सामाजिक और प्रशासनिक जीवन का समग्र चित्र प्रस्तुत करता है। वे स्थायी पुरातात्विक स्रोत हैं जो प्राचीन भारतीय समाज की संस्कृति, जीवन शैली और कला को उजागर करते हैं। इनका अध्ययन समाज की परंपराओं, धार्मिक प्रथाओं और सांस्कृतिक आदान-प्रदान की जानकारी देता है।
इस प्रकार, स्मारक और भवन प्राचीन समाज, धर्म और प्रशासनिक व्यवस्था का अमूल्य स्रोत हैं। इनके संरक्षण और अध्ययन से प्राचीन भारतीय स्थापत्य कला, सांस्कृतिक जीवन और सामाजिक संरचना का व्यापक और सटीक चित्र प्राप्त होता है। यह इतिहास और पुरातत्व अध्ययन के लिए अनमोल स्रोतों में से एक हैं।
(VII) मूर्तिकला
मूर्तिकला प्राचीन भारतीय धर्म, समाज और सांस्कृतिक चेतना का महत्वपूर्ण स्रोत है। देवी-देवताओं, राजाओं और आम जीवन की झलक मूर्तियों में अंकित है। ये न केवल धार्मिक और सामाजिक विचारों को दर्शाती हैं, बल्कि ऐतिहासिक जानकारी भी प्रदान करती हैं। मूर्तिकला अध्ययन और शोध के लिए प्राचीन समाज की समझ में अमूल्य योगदान देती है।
मौर्योत्तर और गुप्त मूर्तिकला त्रिआयामी यथार्थवाद, नाजुक शिल्पकला और तकनीकी कौशल का प्रमाण है। कांसा, पत्थर और मिट्टी की मूर्तियां धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन का सटीक चित्रण प्रस्तुत करती हैं। ये मूर्तियां उस समय की जीवनशैली, रीति-रिवाज और सामाजिक संरचना को स्पष्ट रूप से प्रकट करती हैं।
मूर्तिकला केवल सौंदर्य का माध्यम नहीं थी, बल्कि यह धार्मिक और सामाजिक चेतना का संवाहक भी थी। प्रतीकात्मक और पौराणिक कथाएं मूर्तियों के माध्यम से समाज तक पहुँचती थीं। इनके द्वारा नैतिक शिक्षा, सांस्कृतिक मूल्य और धार्मिक सिद्धांत लोगों तक पहुँचाए जाते थे, जिससे सामाजिक और आध्यात्मिक चेतना मजबूत होती थी।
दक्षिण भारत के मंदिरों की मूर्तिकला शिल्पकला और धार्मिक भक्ति का उत्कृष्ट प्रमाण है। ये मूर्तियां सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन का मूल्यवान दस्तावेज प्रस्तुत करती हैं। इनके अध्ययन से स्थापत्य कला और मंदिर निर्माण की तकनीकी प्रगति के साथ-साथ धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन की भी गहरी समझ प्राप्त होती है।
मौर्य और गुप्त काल की मूर्तियों में मानव आकृति का यथार्थवादी चित्रण मिलता है। ये मूर्तियां प्राचीन जीवन, पोशाक, संस्कृति और सामाजिक आदर्शों का सटीक अध्ययन संभव बनाती हैं। इसके माध्यम से समाज और संस्कृति की गहरी समझ विकसित होती है और प्राचीन भारतीय जीवन शैली का विस्तृत चित्र प्राप्त होता है।
मूर्ति निर्माण धार्मिक भक्ति और सामाजिक चेतना का अभिन्न माध्यम था। मूर्तिकला स्थापत्य और चित्रकला के साथ मिलकर प्राचीन जीवन का समग्र दृश्य प्रस्तुत करती थी। इसका अध्ययन इतिहास और कला दोनों के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह समाज, धर्म और कला का विस्तृत और समग्र चित्र प्रदान करती है।
मूर्तियों में प्रतीकात्मक तत्व धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक संकेत स्पष्ट करते हैं। राजाओं की शक्ति, शासन और समाज की संरचना मूर्तिकला के माध्यम से अभिव्यक्त होती है। इसके माध्यम से प्राचीन प्रशासन, सत्ता और सामाजिक संगठन का ज्ञान प्राप्त होता है, जो इतिहास और राजनीति के अध्ययन के लिए अत्यंत मूल्यवान है।
मूर्तिकला युद्ध, उत्सव और दैनिक जीवन की झलक प्रदान करती है। यह न केवल कला और सौंदर्य का प्रमाण है, बल्कि प्राचीन समाज, संस्कृति और धार्मिक विश्वासों का वास्तविक और ऐतिहासिक दस्तावेज भी प्रस्तुत करती है। इसके माध्यम से समाज की परंपराएं, रीति-रिवाज और धार्मिक आदर्श स्पष्ट रूप से समझे जा सकते हैं।
मूर्तिकला क्षेत्रीय विविधताओं और सांस्कृतिक आदान-प्रदान का प्रमाण प्रस्तुत करती है। विभिन्न राज्यों और साम्राज्यों की शैलियां प्राचीन समाज, धर्म और सांस्कृतिक जीवन की गहन समझ देती हैं। यह जानकारी इतिहासकारों को क्षेत्रीय संस्कृति और कला की प्रगति समझने में मदद करती है और सामाजिक तथा सांस्कृतिक परंपराओं का समग्र चित्र प्रस्तुत करती है।
इस प्रकार, मूर्तिकला प्राचीन समाज, धर्म और सांस्कृतिक आदर्शों का अमूल्य स्रोत है। यह स्मारक और चित्रकला के साथ मिलकर प्राचीन भारतीय जीवन और सांस्कृतिक चेतना का समग्र और विस्तृत चित्र प्रस्तुत करती है। मूर्तिकला अध्ययन प्राचीन समाज, कला, धर्म और सांस्कृतिक आदर्शों की गहन समझ प्राप्त करने में अत्यंत महत्वपूर्ण है।
(VIII) चित्रकला
चित्रकला प्राचीन भारतीय धर्म, समाज और सांस्कृतिक चेतना का दृश्य रूप है। मठों और मंदिरों की दीवारों पर भित्ति चित्र शिक्षा, भक्ति और सांस्कृतिक आदर्शों का माध्यम प्रस्तुत करते हैं। ये चित्रकला न केवल धार्मिक भावनाओं को व्यक्त करती है, बल्कि प्राचीन समाज, संस्कृति और जीवन शैली के अध्ययन के लिए अमूल्य पुरातात्विक स्रोत भी हैं।
चित्रकला में प्राकृतिक और खनिज रंगद्रव्य का प्रयोग प्राचीन तकनीकी कौशल और संसाधन प्रबंधन को दर्शाता है। भित्ति चित्र तत्कालीन पोशाक, उत्सव, नृत्य, भोजन और सामाजिक जीवन का सटीक चित्रण करते हैं। इसके माध्यम से प्राचीन भारतीय जीवन के सांस्कृतिक और सामाजिक पहलुओं की विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है।
भित्ति चित्र बौद्ध, जैन और हिंदू कथाओं का प्रसारण करते थे। ये चित्रकला शिक्षण, भक्ति और सामाजिक आदर्शों का संवाहन कर समाज में नैतिकता और धार्मिक चेतना का प्रचार करती थी। इसके माध्यम से धार्मिक शिक्षा और सांस्कृतिक मूल्यों का स्थायी दस्तावेज समाज में स्थापित होता था।
मंदिर और मठों की चित्रकला स्थापत्य और मूर्तिकला के साथ गहन समन्वय में थी। यह दृश्यात्मक कला धार्मिक भावनाओं, सामाजिक चेतना और सांस्कृतिक जीवन का प्रमाण प्रस्तुत करती है। इन चित्रों के अध्ययन से प्राचीन समाज की जटिल संरचना और सांस्कृतिक आदान-प्रदान की गहन समझ प्राप्त होती है।
चित्रकला में धार्मिक प्रतीक, पौराणिक कथाएं और ऐतिहासिक घटनाएं अंकित होती थीं। ये शिल्प और स्थापत्य के साथ मिलकर समाज, धर्म और शासन की समग्र जानकारी प्रदान करती हैं। इसके माध्यम से प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक और राजनीतिक इतिहास का व्यापक अध्ययन संभव होता है।
अजंता की भित्ति चित्रकला सामाजिक जीवन, पोशाक, धार्मिक अनुष्ठानों और दैनिक जीवन की सटीक जानकारी देती है। यह प्राचीन संस्कृति का अमूल्य दस्तावेज है और इतिहासकारों के लिए समाज और धार्मिक आदर्शों का मूल्यवान स्रोत प्रदान करती है। इससे जीवन और संस्कृति का व्यापक चित्र स्पष्ट होता है।
चित्रकला में मानव आकृतियों का यथार्थवादी चित्रण, पोशाक, गहनों और जीवनशैली का विवरण प्राचीन समाज का सांस्कृतिक अध्ययन संभव बनाता है। यह कला धार्मिक अभिव्यक्ति और सामाजिक संरचना का स्पष्ट और सटीक प्रमाण प्रस्तुत करती है, जिससे समाज और जीवन शैली की गहन समझ प्राप्त होती है।
चित्रकला केवल धार्मिक अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि शिक्षा और सामाजिक मूल्य प्रसारित करने का माध्यम भी थी। इसमें सामाजिक संगठन, जीवन शैली, उत्सव और धार्मिक अनुष्ठान का संकेत मिलता है। इस कला के माध्यम से प्राचीन समाज का समग्र दृश्य प्राप्त होता है और सांस्कृतिक चेतना का विश्लेषण संभव होता है।
भित्ति चित्रों और मठों की चित्रकला सामरिक, सांस्कृतिक और धार्मिक आदर्शों का संवाहन करती थी। यह कला इतिहासकारों के लिए जीवन, संस्कृति, धर्म और प्रशासन का अमूल्य स्रोत है। इसके अध्ययन से प्राचीन भारतीय समाज की समग्र समझ और सांस्कृतिक आदान-प्रदान की स्पष्ट जानकारी मिलती है।
इस प्रकार, चित्रकला प्राचीन भारतीय समाज, धर्म और सांस्कृतिक आदर्शों का अमूल्य पुरातात्विक स्रोत है। यह मूर्तिकला और स्मारक के साथ मिलकर इतिहास, धार्मिक चेतना और सांस्कृतिक जीवन का समग्र और विस्तृत चित्र प्रस्तुत करती है। चित्रकला के अध्ययन से प्राचीन भारतीय जीवन और कला का व्यापक दृष्टिकोण मिलता है।
(IX) मुहरें
प्राचीन भारतीय इतिहास के पुरातात्विक स्रोतों में मुहरें एक महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। ये न केवल आर्थिक गतिविधियों, बल्कि प्रशासनिक और सांस्कृतिक जानकारी भी प्रदान करती हैं। मुहरों पर बने चित्र और लेख तत्कालीन कला, धर्म और सामाजिक जीवन को दर्शाते हैं, जिससे उस युग की सभ्यता और व्यापारिक संबंधों की जानकारी मिलती है।
सिंधु घाटी सभ्यता की मुहरें विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि वे एक विकसित और जटिल समाज की ओर इशारा करती हैं। इन मुहरों पर अंकित विभिन्न आकृतियां, जैसे- पशु, देवता और लिपि, उस समय के धार्मिक विश्वासों और प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति को समझने में मदद करती हैं।
मुहरें विभिन्न आकारों और पदार्थों में पाई जाती हैं, जिनमें मिट्टी, टेराकोटा, हाथी दांत और अन्य सामग्री शामिल हैं। इन पर अंकित लिपि अक्सर अपठनीय होती है, लेकिन चित्र और प्रतीक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक साक्ष्य प्रदान करते हैं। कई मुहरें प्रशासनिक या व्यक्तिगत पहचान के लिए उपयोग की जाती थीं, जो राज्य या समाज की संरचना को समझने में मदद करती हैं।
मुहरों के अध्ययन से तत्कालीन व्यापार मार्गों और वाणिज्यिक नेटवर्क की भी जानकारी मिलती है। यह पता चलता है कि प्राचीन भारत के विभिन्न क्षेत्रों और विदेशी सभ्यताओं के बीच व्यापारिक संबंध थे, जो इन मुहरों के माध्यम से स्थापित हुए थे।