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प्रश्न: आर्द्रभूमि के पारिस्थितिक और सामाजिक-आर्थिक महत्त्व पर चर्चा कीजिए। आर्द्रभूमि के लिए प्रमुख जोखिम क्या हैं तथा उनके संरक्षण और सतत प्रबंधन के लिए क्या उपाय किए जा सकते हैं? 

Discuss the ecological and socio-economic importance of wetlands. What are the major threats to wetlands, and what measures can be taken for their conservation and sustainable management?

उत्तर: आर्द्रभूमियाँ ऐसे स्थल होते हैं जहाँ जल स्थायी या मौसमी रूप में उपस्थित रहता है, जैसे– झीलें, दलदल, मैंग्रोव, समुद्री तट और नदी डेल्टा। भारत में लगभग 4.6% क्षेत्रफल आर्द्रभूमियों द्वारा आवृत्त है, जो पारिस्थितिकीय संतुलन और मानव आजीविका दोनों के लिए अत्यंत आवश्यक संरचनाएँ हैं।

आर्द्रभूमि का पारिस्थितिक एवं सामाजिक-आर्थिक महत्त्व

(1) जैव विविधता का संरक्षण: आर्द्रभूमियाँ विविध वनस्पति व प्राणी प्रजातियों का निवास स्थान हैं। ये संकटग्रस्त व स्थानिक प्रजातियों को सुरक्षा देती हैं। भारत की चिलिका झील, लोकटक झील व सुंदरबन जैव विविधता की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध हैं, जो वैश्विक स्तर पर संरक्षण प्राथमिकताओं में शामिल हैं।

(2) जल शुद्धिकरण व भूजल पुनर्भरण: आर्द्रभूमियाँ प्राकृतिक जल फिल्टर की भांति कार्य करती हैं। ये प्रदूषकों को अवशोषित कर जल की गुणवत्ता बढ़ाती हैं तथा वर्षा जल को संग्रहित कर भूजल स्तर बनाए रखती हैं। कोलकाता की ईस्ट वेटलैंड प्रणाली शहरी जलशोधन का पारिस्थितिकीय मॉडल प्रस्तुत करती है।

(3) बाढ़ और आपदा प्रबंधन: वर्षा जल को अवशोषित कर आर्द्रभूमियाँ बाढ़ की तीव्रता को नियंत्रित करती हैं। वे तटीय क्षेत्रों में चक्रवात और तूफानों से प्राकृतिक सुरक्षा प्रदान करती हैं। सुंदरबन मैंग्रोव प्रणाली बंगाल की खाड़ी क्षेत्र में चक्रवातों के प्रभाव को सीमित करने में निर्णायक भूमिका निभाती है।

(4) ग्रामीण आजीविका का आधार: आर्द्रभूमियाँ मछलीपालन, बत्तख पालन, जलकृषि और हस्तशिल्प जैसे कार्यों का आधार बनती हैं। भारत के बिहार, असम और मणिपुर राज्यों में लाखों लोग आर्द्रभूमि आधारित कृषि और जीविकोपार्जन से जुड़े हैं, जिससे यह क्षेत्र ग्रामीण अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान देता है।

(5) सांस्कृतिक, धार्मिक और पर्यटन मूल्य: कई आर्द्रभूमियाँ धार्मिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। पुष्कर झील, हरिके जलाशय, और मानसरोवर जैसी संरचनाएँ तीर्थाटन केंद्र हैं। साथ ही, इन क्षेत्रों में बर्ड वॉचिंग, ईको-टूरिज्म और परंपरागत उत्सवों से स्थानीय पर्यटन एवं रोजगार को बढ़ावा मिलता है।

आर्द्रभूमियों के लिए प्रमुख जोखिम 

(1) भूमि उपयोग परिवर्तन एवं अतिक्रमण: तेज़ी से हो रहे शहरीकरण के कारण आर्द्रभूमियों पर निर्माण कार्य और अतिक्रमण बढ़ा है। भूमि को सूखाकर आवासीय, औद्योगिक और कृषि उपयोगों में परिवर्तित किया जा रहा है, जिससे इन पारिस्थितिकीय संरचनाओं की जैविक कार्यक्षमता समाप्त हो रही है, जैसे– बेंगलुरु की झीलें।

(2) औद्योगिक और घरेलू प्रदूषण: आर्द्रभूमियों में सीवेज, औद्योगिक अपशिष्ट और प्लास्टिक का निर्वहन प्रदूषण का प्रमुख स्रोत है। यह जलीय जीवन, जलगुणवत्ता और मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। दिल्ली की नजफगढ़ झील और यमुना की सहायक आर्द्रभूमियाँ इस प्रदूषण से गंभीर रूप से प्रभावित हैं।

(3) कृषि रसायनों का अपवाह: रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का अपवाह आर्द्रभूमियों में नाइट्रोजन व फॉस्फेट की अधिकता उत्पन्न करता है, जिससे यूट्रोफिकेशन होता है। इससे जल में ऑक्सीजन की कमी और जलीय जैव विविधता का विनाश होता है, जो विशेष रूप से हरियाणा और पंजाब क्षेत्र में देखा गया है।

(4) जलवायु परिवर्तन के प्रभाव: वर्षा पैटर्न में अस्थिरता और तापमान वृद्धि से आर्द्रभूमियों का जलस्तर प्रभावित होता है। इससे पारिस्थितिक असंतुलन, सूखा या अधिक जलभराव जैसी स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं। पश्चिमी भारत के कई मौसमी आर्द्रभूमि क्षेत्र जलवायु परिवर्तन के कारण सूखने की स्थिति में पहुँच गए हैं।

(5) नीति व संस्थागत समन्वय की कमी: भारत में आर्द्रभूमियों के लिए स्पष्ट, समन्वित और क्रियाशील नीति तंत्र का अभाव है। केन्द्र और राज्य एजेंसियों में समन्वय की कमी, भूमि डेटा की अस्पष्टता और निगरानी की विफलता संरक्षण प्रयासों को बाधित करती है, जिससे कई महत्त्वपूर्ण स्थल संकट में पहुँच चुके हैं।

संरक्षण और सतत प्रबंधन के उपाय

(1) सुदृढ़ कानूनी और नीतिगत ढाँचा: आर्द्रभूमियों की पहचान, सीमा निर्धारण और संरक्षित दर्जा सुनिश्चित करने के लिए एक पृथक अधिनियम आवश्यक है। राज्य स्तरीय प्राधिकरणों को सशक्त बनाकर और वेटलैंड (संरक्षण एवं प्रबंधन) नियमों का कठोर अनुपालन कर आर्द्रभूमियों को संरक्षित किया जा सकता है।

(2) समुदाय आधारित संरक्षण मॉडल: स्थानीय समुदायों की सहभागिता से संरक्षण अधिक प्रभावी होता है। उनके पारंपरिक ज्ञान, संसाधनों और व्यवहारों को योजनाबद्ध ढंग से जोड़ने से संरक्षण प्रयासों की स्वीकार्यता और दीर्घकालिकता बढ़ती है। मणिपुर की लोकटक झील इसका एक सकारात्मक उदाहरण प्रस्तुत करती है।

(3) भू-स्थानिक निगरानी एवं डेटा प्रबंधन: GIS, रिमोट सेंसिंग और ड्रोन तकनीकों से आर्द्रभूमियों की सीमा, स्थिति और स्वास्थ्य की निगरानी की जा सकती है। नियमित रूप से डेटा संग्रह, विश्लेषण और सार्वजनिक उपलब्धता से पारदर्शिता बढ़ेगी और अवैध गतिविधियों की शीघ्र पहचान संभव होगी।

(4) पारिस्थितिक पुनर्स्थापन योजनाएँ: प्रदूषित, सिकुड़ती या सूखती आर्द्रभूमियों के पुनर्स्थापन हेतु जलीय वनस्पति रोपण, जलस्रोत पुनर्भरण और जैविक उपचार आवश्यक हैं। पुनर्स्थापन से कार्बन भंडारण, जैव विविधता और पारिस्थितिकी संतुलन पुनः सशक्त हो सकते हैं, जैसा कि सुंदरबन में चल रही योजनाओं में देखा गया है।

(5) रामसर स्थलों का सतत प्रबंधन: भारत की 75 रामसर साइटों के लिए दीर्घकालिक प्रबंधन योजना, पारिस्थितिक पर्यटन, अंतरराष्ट्रीय सहयोग और वित्तीय निवेश को एकीकृत कर रणनीति बनाई जानी चाहिए। इससे स्थानीय रोजगार, जैव विविधता संरक्षण और वैश्विक जलवायु प्रतिबद्धताओं की पूर्ति एक साथ सुनिश्चित की जा सकती है।

भारत की आर्द्रभूमियाँ पारिस्थितिकीय संतुलन, सामाजिक स्थायित्व और आर्थिक सुरक्षा की धुरी हैं। इनके संरक्षण हेतु वैज्ञानिक दृष्टिकोण, कानूनी कठोरता, और जनभागीदारी को समन्वित करना आवश्यक है। यदि इन्हें संरक्षित न किया गया, तो भारत पारिस्थितिकीय आपदाओं और जलवायु संकट की गंभीर मार झेलेगा।

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