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प्रश्न: वैश्विक बाढ़ की घटनाओं में वृद्धि में योगदान देने वाले कारकों का विश्लेषण कीजिए। समुदायों और पारिस्थितिकी तंत्रों पर क्या प्रभाव पड़ते हैं तथा इन परिवर्तनों को कम करने और उनके अनुकूल होने के लिए कौन-सी रणनीतियां लागू की जा सकती हैं?  

Analyze the factors contributing to the increase in global flooding incidents. What are the impacts on communities and ecosystems, and what strategies can be implemented to mitigate and adapt to these changes?

उत्तर: बाढ़ एक प्राकृतिक आपदा है जिसमें अत्यधिक वर्षा, जलाशयों का टूटना या जलवायु असंतुलन के कारण भूमि का बड़ा हिस्सा जलमग्न हो जाता है। हाल के वर्षों में वैश्विक तापमान वृद्धि, मानसूनी अस्थिरता और पर्यावरणीय क्षरण ने बाढ़ की आवृत्ति और तीव्रता को भारत सहित विश्वभर में तीव्र कर दिया है।

वैश्विक बाढ़ वृद्धि के प्रमुख कारक

(1) जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि: जलवायु परिवर्तन ने वायुमंडल में नमी की मात्रा बढ़ा दी है, जिससे भारी वर्षा की घटनाएँ अधिक तीव्र और असामान्य हो गई हैं। भारत में यह परिवर्तन पश्चिमी तट, पूर्वोत्तर और हिमालयी क्षेत्रों में चरम वर्षा को बढ़ावा दे रहा है, जिससे तीव्र बाढ़ की घटनाएँ बढ़ रही हैं।

(2) अनियोजित शहरीकरण और जल निकासी संकट: भारतीय शहरों में अनियोजित निर्माण और जल निकासी संरचनाओं की उपेक्षा बाढ़ का प्रमुख कारण बन रही है। पारंपरिक नालों का अतिक्रमण, सीवरेज जाम और सीमेंटेड सतहें वर्षाजल के अपवाह को रोकती हैं, जिससे शहरी क्षेत्रों में हर वर्ष बाढ़ की तीव्रता और क्षति बढ़ रही है।

(3) नदियों के प्रवाह में मानवीय हस्तक्षेप: बांध, बैराज और चैनलाइजेशन परियोजनाएँ नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को बाधित करती हैं, जिससे बाढ़ की आवृत्ति असामान्य रूप से बढ़ जाती है। कोसी और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों में यह हस्तक्षेप जल बहाव की दिशा बदलता है, जिससे निचले क्षेत्रों में अचानक और विनाशकारी बाढ़ आती है।

(4) भूमि उपयोग में परिवर्तन और वनों की कटाई: वनों की अंधाधुंध कटाई और कृषि भूमि को शहरी रूप में परिवर्तित करना जलग्रहण क्षमता को नष्ट करता है। इससे वर्षा जल त्वरित रूप से सतह पर बहता है और बाढ़ की तीव्रता को बढ़ा देता है। भारत के उत्तर-पूर्वी व मध्य राज्यों में यह प्रवृत्ति विशेष रूप से देखी जा रही है।

(5) हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियर पिघलाव: ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिमालयी ग्लेशियर तेज़ी से पिघल रहे हैं, जिससे ग्लेशियर झीलों की संख्या और आकार बढ़ रहा है। इन झीलों के अचानक फटने पर व्यापक बाढ़ आती है, जो उत्तराखंड और सिक्किम जैसे राज्यों में हालिया वर्षों में गंभीर मानवीय एवं पारिस्थितिक संकट उत्पन्न कर रही है।

समुदायों और पारिस्थितिकी तंत्रों पर प्रभाव

(1) जीवन और आवास की व्यापक क्षति: भारत में हर वर्ष बाढ़ के कारण सैकड़ों लोगों की मृत्यु और लाखों का विस्थापन होता है। आवास, सड़क, विद्युत और जल संरचनाएँ पूरी तरह क्षतिग्रस्त हो जाती हैं। असंगठित बस्तियों और नदी किनारे के गरीब समुदाय सबसे अधिक प्रभावित होते हैं, जिससे सामाजिक असमानता और बढ़ जाती है।

(2) सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट: बाढ़ के दौरान और बाद में जलजनित व संक्रामक रोगों की व्यापकता बढ़ जाती है। मलेरिया, डेंगू, टाइफाइड और हैजा जैसी बीमारियाँ महामारी का रूप ले लेती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं की सीमित पहुंच, पीने योग्य जल की कमी और पोषण असुरक्षा स्थिति को और जटिल बनाती है।

(3) कृषि उत्पादन और खाद्य सुरक्षा पर प्रभाव: बाढ़ से खड़ी फसलें, बीज भंडार और मिट्टी की उर्वरता को भारी नुकसान पहुंचता है। इससे किसानों की आजीविका संकट में पड़ती है और ग्रामीण अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है। खाद्यान्न की आपूर्ति बाधित होने से कीमतों में वृद्धि और गरीब वर्गों की खाद्य पहुंच पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

(4) पारिस्थितिकी तंत्रों की अस्थिरता: बाढ़ आर्द्रभूमियों, वनों और जैवविविधता वाले क्षेत्रों को क्षति पहुंचाती है। प्रजातियों का आवास नष्ट होता है, जिससे स्थानीय पारिस्थितिकी सेवाएं बाधित होती हैं। उदाहरणतः सुंदरबन डेल्टा क्षेत्र में खारे पानी की घुसपैठ से मैंग्रोव वनस्पति नष्ट हो रही है, जो बाढ़ सुरक्षा की प्राकृतिक दीवार थी।

(5) सामाजिक ढांचे और शिक्षा प्रणाली पर प्रभाव: बाढ़ के कारण स्कूलों का बंद होना, बच्चों का विस्थापन और बाल श्रम की प्रवृत्ति बढ़ जाती है। सामाजिक ताने-बाने में तनाव, यौन हिंसा और पुनर्वास में भेदभाव उत्पन्न होते हैं। लंबे समय तक विस्थापन से प्रभावित समुदायों में सामाजिक एकता और सामूहिक स्मृति कमजोर पड़ जाती है।

शमन और अनुकूलन की रणनीतियाँ

(1) बहुस्तरीय पूर्व चेतावनी तंत्र का विकास: उन्नत रिमोट सेंसिंग, उपग्रह इमेजिंग और कृत्रिम बुद्धिमत्ता के माध्यम से बाढ़ पूर्व चेतावनी प्रणाली को अधिक सटीक और क्षेत्र विशेष बनाना आवश्यक है। इससे संभावित प्रभावित क्षेत्रों में समय रहते लोगों को सुरक्षित स्थानों पर स्थानांतरित कर जान-माल की क्षति को न्यूनतम किया जा सकता है।

(2) पारिस्थितिक पुनर्रचना और जलग्रहण संरक्षण: वृक्षारोपण, प्राकृतिक नालों का पुनर्निर्माण और आर्द्रभूमियों की रक्षा से जल का प्राकृतिक अवशोषण तंत्र पुनर्स्थापित हो सकता है। इन उपायों से जल संचयन क्षमता बढ़ती है और सतही बहाव घटता है, जिससे बाढ़ की तीव्रता को दीर्घकालिक रूप से नियंत्रित किया जा सकता है।

(3) समावेशी और टिकाऊ शहरी नियोजन: शहरी बाढ़ से निपटने हेतु मास्टर प्लान में जल अपवाह प्रणाली, हरित पट्टियाँ, वर्षाजल संचयन और जल पुनर्चक्रण को अनिवार्य बनाया जाना चाहिए। स्मार्ट सिटी योजनाओं में जल-लचीला ढांचा और जन भागीदारी आधारित पुनर्निर्माण तंत्र लागू कर शहरी पारिस्थितिक संतुलन बहाल किया जा सकता है।

(4) समुदाय आधारित आपदा प्रबंधन: स्थानीय स्तर पर सामुदायिक प्रशिक्षण, महिला नेतृत्व में आपदा निगरानी और बाल-संवेदनशील पुनर्वास कार्यक्रमों से लचीलापन बढ़ाया जा सकता है। पंचायत स्तर पर आपदा प्रबंधन कोष, पारदर्शी राहत वितरण और शिक्षा कार्यक्रमों को संस्थागत रूप देने से दीर्घकालिक सामाजिक पुनर्निर्माण संभव हो सकता है।

(5) नीति समन्वय और वित्तीय तंत्र का सशक्तिकरण: राष्ट्रीय, राज्य और स्थानीय स्तर पर एकीकृत बाढ़ नीति बनाना आवश्यक है, जिसमें वित्तीय आवंटन, जोखिम बीमा और अनुदान योजना शामिल हों। जलवायु अनुकूलन कोष और निजी सहभागिता के माध्यम से बाढ़ नियंत्रण हेतु बुनियादी ढांचे के निर्माण में गति लाई जा सकती है।

बढ़ती वैश्विक बाढ़ की घटनाएँ केवल जलवायु परिवर्तन का नहीं, बल्कि मानवीय लापरवाही और नीति विफलता का परिणाम हैं। भारत जैसे विकासशील देश को बहुस्तरीय रणनीतियों, समुदाय सहभागिता और पारिस्थितिक दृष्टिकोण के साथ अनुकूलन करना होगा। एकीकृत प्रयास ही बाढ़ के दीर्घकालिक समाधान का वास्तविक आधार बन सकते हैं।

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