प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत : विदेशी यात्रियों के विवरण
विदेशी यात्रियों के वृत्तांत भारतीय इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण स्रोतों में से हैं। इन विवरणों ने हमें प्राचीन और मध्यकालीन भारत के सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन को समझने में अमूल्य सहायता प्रदान की है। उदाहरण के लिए, मेगस्थनीज, फाह्यान, ह्वेन त्सांग, अलबरूनी और इब्नबतूता जैसे यात्रियों ने अपने प्रत्यक्ष अवलोकनों को ईमानदारी से दर्ज किया, जिससे स्थानीय स्रोतों में मौजूद अंतरालों को भरने में मदद मिली। इस प्रकार, ये लेख उस समय के भारत की एक स्पष्ट तस्वीर प्रस्तुत करते हैं, जो अक्सर स्वदेशी अभिलेखों में अनुपलब्ध होती है।
(I) यूनानी विद्वान
विदेशी यात्रियों के विवरण, विशेष रूप से यूनानी विद्वानों के, प्राचीन भारतीय इतिहास के पुनर्निर्माण में अमूल्य स्रोत हैं। ये वृत्तांत उस काल की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्थितियों पर प्रकाश डालते हैं, जिन्हें कभी-कभी स्वदेशी स्रोतों में छोड़ दिया जाता है।
(1) हेरोडोटस को अक्सर “इतिहास का पिता” कहा जाता है, हालांकि वह स्वयं कभी भारत नहीं आए थे। उन्होंने अपने प्रसिद्ध कार्य हिस्ट्रीज़ में भारत का उल्लेख किया, जो मुख्य रूप से फ़ारसी स्रोतों और यात्रियों की कहानियों पर आधारित था। उन्होंने भारतीयों को एक बहादुर और समृद्ध लोग बताया, जो फ़ारसी साम्राज्य के सबसे धनी क्षत्रपों (प्रांतों) में से एक थे। उनके विवरणों में भारत की असाधारण संपत्ति और अनोखे रीति-रिवाजों का उल्लेख मिलता है, जो बाद के यूनानी लेखकों के लिए एक संदर्भ बिंदु बन गए।
(2) टेसियस एक अन्य प्रारंभिक यूनानी लेखक थे, जो फ़ारसी राजा के चिकित्सक थे। उन्होंने अपने कार्य इंडिका में भारत के बारे में लिखा, लेकिन उनके विवरण काफी हद तक काल्पनिक और अविश्वसनीय माने जाते हैं। उन्होंने भारत को एक रहस्यमयी भूमि के रूप में चित्रित किया, जहाँ अजीब जानवर और लोग रहते थे। यद्यपि उनके खाते ऐतिहासिक रूप से सटीक नहीं थे, लेकिन फिर भी उन्होंने यूनानी दुनिया में भारत के बारे में जिज्ञासा पैदा की और इसे एक दूरस्थ, आकर्षक स्थान के रूप में स्थापित किया।
(3) मेगस्थनीज निस्संदेह भारत आने वाले सबसे महत्वपूर्ण यूनानी यात्रियों में से थे। वह सेल्यूकस निकेटर के राजदूत के रूप में चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में पाटलिपुत्र आए थे। उनकी पुस्तक इंडिका, हालांकि अपने मूल रूप में खो गई है, बाद के लेखकों, जैसे- स्ट्रैबो और एरियन, द्वारा उद्धरणों के माध्यम से हमारे पास पहुँची है। यह मौर्यकालीन भारत के प्रशासन, समाज और संस्कृति को समझने के लिए एक प्राथमिक स्रोत है।
मेगस्थनीज ने भारतीय समाज को सात जातियों में विभाजित बताया था (हालांकि यह एक गलत वर्गीकरण था, जो शायद भारतीय जाति व्यवस्था की जटिलता को पूरी तरह से न समझ पाने के कारण हुआ)। उन्होंने मौर्य प्रशासन की अत्यधिक केंद्रीकृत प्रकृति, एक राजा के शीर्ष पर होने और एक कुशल नौकरशाही के बारे में विस्तृत जानकारी दी। उन्होंने पाटलिपुत्र शहर का भी विशद वर्णन किया, जिसमें इसके विशाल आकार, लकड़ी की दीवारों और भव्य महलों का उल्लेख है।
(4) डाइमेकस एक और यूनानी राजदूत थे, जिन्हें सीरियाई राजा एंटीओकस प्रथम ने मौर्य सम्राट बिंदुसार के दरबार में भेजा था। मेगस्थनीज की तरह, डाइमेकस के यात्रा वृत्तांत भी मूल रूप में उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन बाद के यूनानी और रोमन लेखकों ने उनका संदर्भ दिया है। उनके खाते मौर्य दरबार और भारत-यूनानी संबंधों पर प्रकाश डालते हैं, हालांकि विवरण अक्सर खंडित होते हैं।
(5) डायोनिसियस को मिस्र के राजा टॉल्मी फिलाडेल्फस (टॉल्मी द्वितीय) द्वारा सम्राट अशोक के दरबार में राजदूत के रूप में भेजा गया था। उनका आगमन मौर्य साम्राज्य के चरम के दौरान हुआ और उनके विवरणों ने संभवतः अशोक के शासनकाल और बौद्ध धर्म के प्रसार के बारे में जानकारी प्रदान की होगी। हालांकि उनके काम भी खो गए हैं, उनका उल्लेख भारत और हेलेनिस्टिक दुनिया के बीच राजनयिक संबंधों की निरंतरता को दर्शाता है।
(6) टॉलमी एक प्रसिद्ध भूगोलवेत्ता और खगोलशास्त्री थे, जिन्होंने दूसरी शताब्दी ईसवी में ज्योग्राफिया नामक एक महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखा था। उन्होंने भारत के भूगोल, इसके बंदरगाहों और व्यापारिक मार्गों का विस्तृत मानचित्रण किया, हालांकि कुछ त्रुटियों के साथ। उनका काम बाद के यूरोपीय खोजकर्ताओं के लिए भारत के भौगोलिक ज्ञान का आधार बना। उन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप की वाणिज्यिक संभावनाओं पर प्रकाश डाला।
(7) प्लिनी, एक रोमन प्रकृतिवादी और लेखक, ने अपनी पुस्तक ‘नेचुरल हिस्ट्री’ में भारत का उल्लेख किया। उन्होंने भारतीय काली मिर्च और अन्य मसालों के व्यापार के कारण रोम से भारत की ओर बहने वाले भारी सोने के बहिर्वाह के बारे में शिकायत की। उनके लेखन ने भारत के साथ संपन्न समुद्री व्यापार और रोमन अर्थव्यवस्था पर इसके प्रभाव की पुष्टि की, जिससे आर्थिक इतिहास में मूल्यवान अंतर्दृष्टि मिली।
(8) सिकंदर के अभियान के साथ आए यूनानी इतिहासकारों में अरिस्टोबुलस भी शामिल थे। उन्होंने इस अभियान का एक ऐतिहासिक विवरण लिखा, जिसमें उन्होंने भारत की जलवायु, वनस्पति और लोगों के जीवन के बारे में प्रत्यक्ष अवलोकन दर्ज किए। उनके कार्य के उद्धरणों से पंजाब क्षेत्र की तत्कालीन परिस्थितियों, सिंधु नदी प्रणाली और स्थानीय भारतीय समाजों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है।
(9) निअर्कस सिकंदर के बेड़े के एडमिरल थे और उन्होंने भारत से फारस की खाड़ी तक समुद्री यात्रा का नेतृत्व किया था। उनकी यात्रा के वृत्तांत, जो बाद के लेखकों, विशेष रूप से एरियन, द्वारा संरक्षित किए गए, भारतीय तटरेखा, बंदरगाहों और समुद्री व्यापार मार्गों का पहला यूनानी विवरण प्रदान करते हैं। यह जानकारी प्राचीन समुद्री इतिहास के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।
(10) ओनेसिक्रिटस सिकंदर के बेड़े में एक नाविक और इतिहासकार थे और उन्हें एक प्रकार का मुख्य नाविक (पायलट) माना जाता था। उन्होंने भी अपने यात्रा संस्मरण लिखे, जिसमें उन्होंने भारत के लोगों, विशेषकर दार्शनिकों या श्रमणों और ब्राह्मणों से अपनी मुलाकातों का वर्णन किया। उनके विवरणों ने यूनानियों को भारतीय दर्शन और जीवन शैली से परिचित कराया, हालांकि उनके खातों में कुछ अतिशयोक्ति भी शामिल थी।
(11) ‘पेरिप्लस ऑफ द एरीथ्रियन सी’ (लाल सागर का नौवहन) एक अनाम यूनानी नाविक या व्यापारी द्वारा प्रथम शताब्दी ईसवी में लिखी गई एक असाधारण महत्वपूर्ण पुस्तक है। यह एक व्यावहारिक नौवहन गाइड थी जो लाल सागर, अरब सागर और हिंद महासागर के साथ व्यापार मार्गों, बंदरगाहों और वस्तुओं का विस्तृत और सटीक विवरण देती है।
यह पुस्तक भारत के पश्चिमी तट पर स्थित कई बंदरगाहों, जैसे बैरीगाज़ा (भड़ौच), मुज़िरिस और सोपारा का उल्लेख करती है। इसमें निर्यात की जाने वाली वस्तुओं (जैसे काली मिर्च, मोती, मसाले) और आयात की जाने वाली वस्तुओं (जैसे- रोमन शराब, सोना, तांबा) की सूची भी शामिल है। यह दस्तावेज़ भारत-रोमन व्यापार संबंधों और समुद्री गतिविधियों को समझने के लिए एक अद्वितीय स्रोत है।
यूनानी विवरणों का समग्र महत्व इस तथ्य में निहित है कि वे भारतीय इतिहास के उन पहलुओं पर बाहरी दृष्टिकोण प्रदान करते हैं जो अक्सर स्थानीय ग्रंथों में अनुपस्थित होते हैं। वे राजनीतिक संरचनाओं, दैनिक जीवन, आर्थिक गतिविधियों और यहाँ तक कि भारतीय दर्शन की धारणाओं पर भी प्रकाश डालते हैं। ये खाते स्वदेशी स्रोतों के पूरक के रूप में कार्य करते हैं और एक अधिक व्यापक ऐतिहासिक समझ प्रदान करते हैं।
(II) चीनी विद्वान
चीनी विद्वानों के भारत यात्रा वृत्तांत प्राचीन भारतीय इतिहास के अत्यंत महत्वपूर्ण स्रोत हैं। ये यात्री मुख्य रूप से बौद्ध धर्म के अध्ययन, पवित्र स्थलों के दर्शन और मूल धर्मग्रंथों को प्राप्त करने के उद्देश्य से भारत आए थे। उनके द्वारा लिपिबद्ध किए गए विवरण तत्कालीन भारत की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक स्थितियों पर अमूल्य प्रकाश डालते हैं। इन यात्राओं ने चीन और भारत के बीच सांस्कृतिक और धार्मिक आदान-प्रदान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
(1) फाह्यान पहला प्रमुख चीनी यात्री था जो चंद्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल में 399 ईसवी में भारत आया। उसकी यात्रा का मुख्य उद्देश्य बौद्ध धर्म से संबंधित विनयपिटक ग्रंथों की खोज करना था। उसने पैदल ही मध्य एशिया के रास्ते भारत की यात्रा की और समुद्री मार्ग से वापस लौटा। उसने लगभग 6 वर्षों तक भारत के विभिन्न हिस्सों में भ्रमण किया और अपना यात्रा वृत्तांत “फो-क्यो-की” (FO-KUO-CHI) लिखा।
फाह्यान के विवरण मुख्य रूप से भारत की सामाजिक और धार्मिक स्थिति पर केंद्रित हैं। उसने गुप्त काल के समाज का सजीव चित्रण किया है, जिसमें उसने लिखा कि लोग घरों में ताले नहीं लगाते थे, जिससे उस समय की शांति और सुरक्षा का पता चलता है। दंड व्यवस्था सरल थी, जिसमें आमतौर पर आर्थिक दंड दिया जाता था और मृत्युदंड का प्रावधान कम था। उसने यह भी उल्लेख किया कि केवल राजकीय भूमि से ही राज्य को कर मिलता था।
फाह्यान ने अपने वृत्तांत में राजनीतिक व्यवस्था या राजा के बारे में बहुत कम लिखा है, जो ह्वेनसांग के विवरण से एक मौलिक अंतर है। उसका ध्यान मुख्य रूप से बौद्ध धर्मस्थलों, मठों और भिक्षुओं के जीवन पर केंद्रित रहा। उसने अपने लेखन में ब्राह्मणों के वैदिक धर्म की चर्चा नहीं की, बल्कि बौद्ध धर्म की स्थिति पर विस्तार से लिखा। उसके विवरण से पता चलता है कि उस समय भी भारत में बौद्ध धर्म का अच्छा प्रभाव था, हालांकि वह पतन की ओर अग्रसर था।
उसने पाटलिपुत्र में स्थित अशोक के महल और बारह वर्षों तक चलने वाले निःशुल्क चिकित्सालयों का उल्लेख किया, जहाँ गरीबों को मुफ्त दवाइयां और भोजन मिलता था। ये विवरण गुप्तकालीन कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को दर्शाते हैं। उसने मध्य भारत के लोगों को सुखी और समृद्ध बताया। इन विवरणों ने प्राचीन भारत की धर्म, कला, नीति और सभ्यता की ख्याति को विदेशों में फैलाने में मदद की।
(2) संयुगन (SUNG-YUN) 518 ईसवी में अपने एक प्रतिनिधिमंडल के साथ भारत आया था। वह उत्तरी चीन के वेई राजवंश द्वारा बौद्ध धर्मग्रंथों को एकत्र करने के मिशन पर भेजा गया था। उसकी यात्रा का मुख्य केंद्र उत्तरी भारत, विशेषकर गांधार और उड्डियान (स्वात घाटी) था। उसने इन क्षेत्रों की यात्रा की और 521 ईसवी में चीन लौट आया।
संयुगन के विवरण गांधार और उड्डियान में बौद्ध धर्म की स्थिति पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं। उसने वहां के राजाओं और निवासियों के धार्मिक उत्साह, मठों की स्थिति और स्थानीय रीति-रिवाजों का वर्णन किया। उसके वृत्तांत से हमें उस काल की राजनीतिक अस्थिरता और हूणों के आक्रमण के प्रभाव का भी पता चलता है, हालांकि उसके विवरण फाह्यान या ह्वेनसांग जितने व्यापक नहीं हैं।
(3) ह्वेनसांग, जिन्हें जुआनज़ैंग के नाम से भी जाना जाता है, एक प्रसिद्ध चीनी बौद्ध भिक्षु थे जिन्होंने 629 और 645 ईसवी के बीच भारत की यात्रा की। वह सम्राट हर्षवर्धन के शासनकाल के दौरान भारत आए थे। उनका मुख्य उद्देश्य बौद्ध धर्मग्रंथों की मूल प्रतियां प्राप्त करना और बौद्ध शिक्षा के केंद्र नालंदा विश्वविद्यालय में अध्ययन करना था।
ह्वेनसांग ने अपनी यात्रा का विस्तृत वृत्तांत अपनी रचना “सी-यू-की” (SI-YU-KI) में लिपिबद्ध किया। इस ग्रंथ और उनके मित्र ह्वीली द्वारा लिखी गई जीवनी से तत्कालीन भारत की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक स्थिति के बारे में बहुमूल्य जानकारी मिलती है। उनके विवरण फाह्यान की तुलना में अधिक व्यापक हैं, क्योंकि उन्होंने राजा और शासन व्यवस्था पर भी महत्वपूर्ण प्रकाश डाला है।
ह्वेनसांग ने भारत में 16 वर्ष बिताए, विभिन्न बौद्ध तीर्थस्थलों, जैसे- श्रावस्ती, सारनाथ, पाटलिपुत्र, कपिलवस्तु और बोधगया की यात्रा की। उन्होंने विशेष रूप से नालंदा विश्वविद्यालय में अध्ययन और अध्यापन किया, जहाँ उन्हें एक उच्च सम्मानित विद्वान माना गया। उन्होंने वहां के शिक्षा के माहौल और अनुशासन की प्रशंसा की।
उन्होंने हर्षवर्धन के शासन और प्रशासन की भी प्रशंसा की। उनके विवरणों में शहरी नियोजन, कर संग्रह, कानून और व्यवस्था की स्थिति के साथ-साथ विभिन्न क्षेत्रों में दैनिक जीवन की चिंताओं पर भी प्रकाश डाला गया है। उन्होंने भारत के विभिन्न हिस्सों में कृषि, व्यापार और वाणिज्य की आर्थिक स्थितियों पर भी चर्चा की।
ह्वेनसांग के वृत्तांत से हमें उस समय के भारत में बौद्ध धर्म के पतन और हिंदू धर्म (ब्राह्मणवाद) के साथ उसके सह-अस्तित्व के बारे में जानकारी मिलती है। उन्होंने हिंदू देवताओं की मूर्तियों के निर्माण और मंदिरों के प्रभाव में वृद्धि देखी। उनके लेखन ने बौद्ध धर्म और उसकी प्रथाओं को पूरे एशिया में फैलाने में मदद की।
(4) इत्सिंग (I-TSING), जिन्हें यिजिंग के नाम से भी जाना जाता है, एक तांग-युग के चीनी बौद्ध भिक्षु थे जिन्होंने 7वीं शताब्दी के अंत में भारत की यात्रा की। वह समुद्री मार्ग से भारत आए और मुख्य रूप से श्रीविजय (वर्तमान इंडोनेशिया) में रुके और अध्ययन किया। उन्होंने भारत में 673-695 ईसवी तक लगभग 22 वर्षों तक निवास किया।
इत्सिंग का मुख्य ध्यान बौद्ध मठवासी अनुशासन (विनय) के नियमों और प्रथाओं को एकत्र करने और उनका अध्ययन करने पर था। उन्होंने भारतीय मठों में प्रचलित कठोर अनुशासन, दैनिक जीवन और शिक्षा प्रणाली का विस्तृत वर्णन किया। उनके विवरण श्रीविजय और भारत के बीच समुद्री व्यापार मार्गों के इतिहास के लिए भी एक महत्वपूर्ण स्रोत हैं।
उन्होंने अपने यात्रा वृत्तांत में भारत के समाज, संस्कृति और खानपान की आदतों पर भी टिप्पणियां दीं। उन्होंने भारतीय लोगों द्वारा कच्ची सब्जियां न खाने जैसी आदतों का उल्लेख किया, जिससे तत्कालीन भारतीय जीवन शैली की झलक मिलती है। उनके लेखन में उस समय की भारतीय चिकित्सा पद्धति और भिक्षुओं के स्वास्थ्य नियमों का भी उल्लेख है।
इत्सिंग के वृत्तांत ने दक्षिण-पूर्वी एशिया में भारतीयकृत राज्यों, विशेषकर श्रीविजय के इतिहास के बारे में बहुमूल्य जानकारी प्रदान की। उन्होंने चीन और भारत के बीच सांस्कृतिक और धार्मिक आदान-प्रदान के समुद्री मार्ग पर प्रकाश डाला। उनके कार्यों ने चीन में बौद्ध धर्म की समझ को समृद्ध किया और भारत के प्राचीन इतिहास के अध्ययन के लिए एक महत्वपूर्ण प्राथमिक स्रोत बने।
(III) अरबी विद्वान
अरबी विद्वानों के यात्रा विवरण भारतीय इतिहास के अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्राथमिक स्रोत हैं। इन यात्रियों ने भारतीय समाज, संस्कृति, राजनीति और अर्थव्यवस्था का प्रत्यक्ष अवलोकन किया और अपने वृत्तांतों में इन्हें निष्पक्ष रूप से लिपिबद्ध किया। ये विवरण स्थानीय स्रोतों में मौजूद अंतरालों को भरते हैं और एक बाहरी परिप्रेक्ष्य प्रदान करते हैं, जिससे मध्यकालीन भारत की एक समग्र तस्वीर उभरती है। प्रत्येक यात्री का अपना अनूठा दृष्टिकोण और फोकस था, जिसने इतिहास के पुनर्निर्माण में अमूल्य योगदान दिया है।
(1) सुलेमान-अल-ताहिर संभवतः पहले प्रमुख अरब यात्री थे जिनका व्यवस्थित यात्रा विवरण उपलब्ध है। उन्होंने 9वीं शताब्दी ईसवी में भारत की यात्रा की और मुख्य रूप से व्यापारिक संबंधों पर ध्यान केंद्रित किया। उनका ग्रंथ, “सिलसिला-तुत-तवारीख”, तत्कालीन भारत के तटीय क्षेत्रों और व्यापार मार्गों का वर्णन करता है। उन्होंने भारत में प्रचलित सामाजिक व्यवस्था और शासन प्रणालियों का भी उल्लेख किया, जो उस समय के आर्थिक जीवन को समझने में मदद करता है। उनके विवरण राष्ट्रकूट और पाल राजवंशों के बारे में जानकारी प्रदान करते हैं।
(2) अल बिलादुरी ने अपनी पुस्तक “किताब-उल-फुतुह-अल-बुलदान” में भारत पर अरब आक्रमणों, विशेषकर सिंध विजय, का विस्तृत वर्णन किया है। उनका फोकस राजनीतिक और सैन्य घटनाओं पर था। उन्होंने 8वीं शताब्दी के दौरान मोहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में हुए अभियानों और उसके परिणामों का ऐतिहासिक लेखा-जोखा प्रस्तुत किया। यह ग्रंथ अरबों की विजय के प्रशासनिक प्रभावों और सिंध में इस्लामी शासन की स्थापना की प्रक्रिया को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक साक्ष्य है।
(3) अलमसूदी 10वीं शताब्दी के एक प्रमुख भूगोलवेत्ता और इतिहासकार थे, जिन्होंने “मुروج-उल-जहब” नामक प्रसिद्ध ग्रंथ लिखा। उन्होंने राष्ट्रकूट साम्राज्य की शक्ति और प्रतिष्ठा का वर्णन किया, इसे तत्कालीन दुनिया के चार महान साम्राज्यों में से एक बताया। अलमसूदी ने भारतीय समाज, धर्म और भूगोल पर भी टिप्पणियां कीं। उनके विवरण उस समय के भारत और अरब जगत के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान और व्यापारिक संपर्कों पर प्रकाश डालते हैं। उन्होंने भारतीय राजाओं की शक्ति और उनकी धार्मिक सहिष्णुता की प्रशंसा की।
(4) इब्न हॉकल, जो स्वयं एक भूगोलवेत्ता और व्यापारी थे, ने 10वीं शताब्दी में भारत के विभिन्न क्षेत्रों का दौरा किया। उनकी पुस्तक “सूरज-अल-अर्ध” भारतीय उपमहाद्वीप के भौगोलिक विवरण और व्यापार मार्गों पर केंद्रित है। उन्होंने भारत के विभिन्न शहरों और बंदरगाहों के बीच के संपर्कों का मानचित्रण किया। हॉकल के विवरण भारत की आर्थिक समृद्धि और इसके विविध व्यापारिक उत्पादों को दर्शाते हैं। उन्होंने कृषि पद्धतियों और स्थानीय शासन की भी संक्षिप्त जानकारी दी है।
(5) अलबरूनी ग्यारहवीं सदी के सबसे महान बुद्धिजीवियों में से एक थे और उन्हें पहला प्रमुख मुस्लिम इंडोलॉजिस्ट माना जाता है। उन्होंने गजनी में कई वर्ष बिताए और ब्राह्मण विद्वानों के साथ संस्कृत, धर्म और दर्शन का अध्ययन किया। उनकी उत्कृष्ट कृति “किताब-उल-हिंद” या “तहकीक-ए-हिंद” भारतीय समाज, धर्म, दर्शन, विज्ञान और रीति-रिवाजों का एक व्यापक विश्वकोश है, जिसमें 80 अध्याय हैं।
अलबरूनी ने भारतीय जाति व्यवस्था का विस्तृत विश्लेषण किया और इसकी तुलना फारसी और अरब समाजों में मौजूद सामाजिक वर्गों से की। उन्होंने माना कि हिंदू समाज में जाति भेद बहुत कठोर था, जिससे विभिन्न समुदायों के बीच संपर्क मुश्किल था। फिर भी, उन्होंने इस व्यवस्था की जटिलताओं को समझने का प्रयास किया, हालांकि बाहरी व्यक्ति होने के कारण उन्हें कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।
अलबरूनी ने भारतीय विज्ञान, विशेषकर गणित, खगोल विज्ञान और चिकित्सा के क्षेत्र में गहरी रुचि दिखाई। उन्होंने कई संस्कृत ग्रंथों का अरबी में अनुवाद किया, जिसमें पतंजलि के व्याकरण पर एक कार्य और यूक्लिड के कार्यों का संस्कृत में अनुवाद शामिल है। उनके कार्य ने भारतीय वैज्ञानिक ज्ञान को अरब जगत तक पहुँचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे दोनों सभ्यताओं के बीच ज्ञान का आदान-प्रदान संभव हुआ।
(6) इब्नबतूता एक मोरक्को यात्री थे, जो 14वीं शताब्दी में मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल के दौरान भारत आए थे। वह अपनी व्यापक यात्राओं के लिए जाने जाते हैं और उनकी पुस्तक “रिहला” (RIHLA) मध्यकालीन विश्व के इतिहास का एक अमूल्य स्रोत है। तुगलक उनकी विद्वता से प्रभावित हुए और उन्हें दिल्ली का काज़ी या न्यायाधीश नियुक्त किया।
इब्नबतूता के विवरण व्यक्तिगत अनुभवों और वर्णनात्मक शैली पर अधिक केंद्रित हैं, जो अलबरूनी के बौद्धिक विश्लेषण से भिन्न है। उन्होंने भारतीय शहरों, विशेषकर दिल्ली और दौलताबाद के जीवन का जीवंत चित्रण किया। उन्होंने भीड़-भाड़ वाली सड़कों, रंगीन बाजारों और विविध प्रकार की वस्तुओं का वर्णन किया। उनके विवरण उस समय की शहरी अर्थव्यवस्था और जीवन शैली को समझने में मदद करते हैं।
इब्नबतूता के यात्रा वृत्तांत में दास प्रथा और सामाजिक रीति-रिवाजों का भी उल्लेख है। उन्होंने बाजारों में दासों की बिक्री और सामान्य लोगों के जीवन के बारे में लिखा। उनके विवरण भारत-इस्लामी संस्कृति के मेल-जोल और दिल्ली सल्तनत के दरबार के तौर-तरीकों को समझने में मदद करते हैं। उन्होंने सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के स्वभाव, उसकी उदारता और कठोर दंड देने की प्रवृत्ति का भी वर्णन किया।