प्रश्न: राष्ट्रपति और राज्यपालों की उन्मुक्ति के संबंध में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 361 के निहितार्थों का विश्लेषण कीजिए। यह प्रावधान कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्ति संतुलन को कैसे प्रभावित करता है?
Analyze the implications of Article 361 of the Indian Constitution concerning the immunity of the President and Governors. How does this provision impact the balance of power between the executive and judiciary?
उत्तर: भारतीय संविधान का अनुच्छेद 361 राष्ट्रपति एवं राज्यपाल जैसे उच्च संवैधानिक पदों को पदावधि के दौरान न्यायिक कार्यवाहियों से विशेष प्रतिरक्षा प्रदान करता है। यह प्रावधान प्रशासनिक स्थिरता हेतु आवश्यक है, किंतु यह न्यायिक जवाबदेही और विधिक समानता की संवैधानिक अवधारणाओं को चुनौती देता है।
अनुच्छेद 361 के प्रमुख निहितार्थ
(1) आपराधिक कार्यवाहियों से प्रतिरक्षा: राष्ट्रपति एवं राज्यपाल पद पर रहते हुए किसी आपराधिक मामले में न तो अभियुक्त बनाए जा सकते हैं और न ही उन्हें गिरफ़्तार किया जा सकता है, जिससे इन पदों पर आसीन व्यक्तियों को विधिक दायित्वों से तात्कालिक रूप से छूट मिलती है।
(2) आधिकारिक कार्यों की न्यायिक अजेयता: जब कोई संवैधानिक प्रमुख अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए निर्णय लेता है, तब ऐसे निर्णयों की न्यायिक समीक्षा की अनुमति नहीं होती, जिससे कार्यपालिका की स्वायत्तता तो सुनिश्चित होती है, परंतु विधिक उत्तरदायित्व बाधित होता है।
(3) नागरिक मुकदमों के लिए पूर्व सूचना की अनिवार्यता: अनुच्छेद 361 के अंतर्गत यदि कोई नागरिक वाद राष्ट्रपति या राज्यपाल पर दायर करना हो, तो उसे दो माह पूर्व सूचना देनी होती है, जो विधिक प्रक्रिया को जटिल और विलंबकारी बनाती है।
(4) औपचारिक उत्तरदायित्व का अभाव: इस अनुच्छेद में प्रत्यक्ष विधिक उत्तरदायित्व का स्पष्ट मार्ग नहीं है, जिसके कारण ऐसे पदों पर आसीन व्यक्तियों के आचरण पर न्यायालयों का प्रभाव सीमित रह जाता है और पारदर्शिता की संस्थागत आधारशिला कमज़ोर होती है।
(5) नैतिक उत्तरदायित्व पर अत्यधिक निर्भरता: जब संवैधानिक संरचना संस्थागत निगरानी से अधिक नैतिक विवेक पर आश्रित हो, तब यह स्थिति अधिनायकवाद की संभावना को जन्म दे सकती है, विशेषतः जब विधिक हस्तक्षेप के उपकरण निष्क्रिय हों।
कार्यपालिका और न्यायपालिका के शक्ति-संतुलन पर प्रभाव
(1) न्यायिक सर्वोच्चता का ह्रास: जब न्यायपालिका संवैधानिक प्रमुखों के आचरण पर प्रत्यक्ष समीक्षा नहीं कर सकती, तब संविधान में प्रदत्त न्यायिक सर्वोच्चता का मूल सिद्धांत क्षीण होता है और विधि का शासन कमजोर पड़ता है।
(2) विधिक समानता से विचलन: यह प्रावधान सामान्य नागरिकों और संवैधानिक प्रमुखों के बीच कानूनी जवाबदेही में भेद करता है, जिससे ‘कानून के समक्ष समानता’ जैसे मौलिक अधिकार की भावना कमजोर होती है।
(3) कार्यपालिका के संभावित दुरुपयोग की गुंजाइश: जब दंडात्मक कार्यवाहियों से पूर्ण प्रतिरक्षा होती है, तब यह स्थिति कार्यपालिका को विधिक प्रतिबंधों से मुक्त अनुभव करवा सकती है, जिससे सत्ता के दुरुपयोग की संभावना बढ़ती है।
(4) संघीय संतुलन पर केंद्र का वर्चस्व: राज्यपालों को प्राप्त प्रतिरक्षा उन्हें राज्यीय न्यायिक व्यवस्था से अलग कर देती है, जिससे केंद्र सरकार के प्रतिनिधियों को असामान्य संरक्षण प्राप्त होता है और संघीय ढाँचे में शक्ति का संतुलन केंद्र की ओर झुक जाता है।
(5) जवाबदेही की अप्रभावी संरचना: महाभियोग जैसी विधिक प्रक्रिया अत्यधिक जटिल, राजनैतिक और समय-साध्य होती है, जिससे कार्यपालिका की विधिक उत्तरदायित्व प्रक्रिया प्रभावहीन हो जाती है और सार्वजनिक पारदर्शिता बाधित होती है।
अनुच्छेद 361 संवैधानिक पदाधिकारियों की संस्थागत गरिमा एवं स्वतंत्रता की रक्षा हेतु आवश्यक अवश्य है, परंतु इसका दुरुपयोग शक्ति-संतुलन, न्यायिक निगरानी और विधिक समानता को क्षति पहुँचा सकता है। वर्तमान समय में इसकी पुनर्समीक्षा एवं व्याख्यात्मक सीमांकन आवश्यक है, जिससे लोकतांत्रिक शासन में उत्तरदायित्व और पारदर्शिता को सशक्त किया जा सके।