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प्रश्न: भारत में आरक्षण के ऐतिहासिक विकास और कानूनी ढांचे पर चर्चा कीजिए। साथ ही, मंडल आयोग की सिफ़ारिशों और आरक्षण नीति पर उनके प्रभाव पर भी प्रकाश डालिए।

Discuss the historical evolution and the legal framework of reservations in India. Also, highlight the recommendations of the Mandal Commission and their impact on the reservation policy.

उत्तर: आरक्षण भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त एक सकारात्मक भेदभाव की नीति है, जिसका उद्देश्य सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को समान अवसर उपलब्ध कराना है। यह ऐतिहासिक अन्यायों को सुधारने तथा प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने की एक संस्थागत व्यवस्था है।

ऐतिहासिक विकास और कानूनी ढांचा

(1) औपनिवेशिक युग की पृष्ठभूमि: ब्रिटिश शासन के अंतर्गत 1932 में सांप्रदायिक अवार्ड के माध्यम से आरक्षण की वैचारिक नींव रखी गई, जिसने अलग निर्वाचक मंडलों के माध्यम से राजनीतिक प्रतिनिधित्व के विचार को वैधता दी, जो स्वतंत्र भारत की नीतियों की पूर्वपीठिका बनी।

(2) पूना समझौता और प्रारंभिक स्वीकृति: महात्मा गांधी और डॉ. भीमराव अंबेडकर के बीच पूना समझौते के तहत अनुसूचित जातियों को संयुक्त निर्वाचन क्षेत्रों में आरक्षण मिला, जिसने सामाजिक समावेशन की दिशा में प्रारंभिक संवैधानिक स्वीकृति दी और प्रतिनिधित्व का नया प्रतिमान स्थापित किया।

(3) संविधान में आरक्षण का प्रावधान: अनुच्छेद 15(4), 16(4), 330 और 332 में अनुसूचित जातियों, जनजातियों एवं पिछड़े वर्गों के लिए शिक्षा, सरकारी सेवाओं और विधायिकाओं में आरक्षण का संवैधानिक प्रावधान किया गया, जिससे समता के अधिकार को व्यावहारिक स्वरूप मिला।

(4) न्यायिक व्याख्या और सीमा निर्धारण: इंद्रा साहनी वाद (1992) में सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षण की सीमा 50% निर्धारित करते हुए तीन प्रमुख शर्तें—पिछड़ापन, अपर्याप्त प्रतिनिधित्व और प्रशासनिक दक्षता—निर्धारित कीं, जिससे आरक्षण नीति को न्यायिक विवेकशीलता प्राप्त हुई।

(5) संशोधन और विस्तार: 77वां, 81वां, 93वां और 103वां संविधान संशोधन क्रमशः पदोन्नति में आरक्षण, संचित रिक्तियाँ, निजी शिक्षण संस्थानों और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के आरक्षण को संवैधानिक संरक्षण प्रदान करते हैं, जिससे इसकी व्यापकता और जटिलता बढ़ी।

मंडल आयोग की सिफारिशें और प्रभाव

(1) 27% आरक्षण की अनुशंसा: मंडल आयोग ने केंद्र सरकार की नौकरियों और उच्च शिक्षण संस्थानों में अन्य पिछड़ा वर्गों के लिए 27% आरक्षण की सिफारिश की, जिससे सामाजिक प्रतिनिधित्व का दायरा विस्तृत हुआ और आरक्षण नीति बहुजातीय परिप्रेक्ष्य में परिवर्तित हुई।

(2) पिछड़ेपन के निर्धारण हेतु मानदंड: आयोग ने सामाजिक, शैक्षणिक और आंशिक आर्थिक संकेतकों के आधार पर पिछड़े वर्गों की पहचान हेतु बहु-स्तरीय मानदंड विकसित किए, जिससे जाति से इतर सामाजिक स्थितियों को भी आरक्षण की वैधता के दायरे में लाया जा सका।

(3) संस्थागत संरचना की आवश्यकता: मंडल आयोग ने एक पृथक सामाजिक न्याय मंत्रालय की स्थापना की अनुशंसा की ताकि नीतियों की निगरानी, क्रियान्वयन और पुनरीक्षण के लिए संस्थागत ढांचा तैयार हो, जिससे प्रभावशीलता और जवाबदेही सुनिश्चित की जा सके।

(4) पूरक शैक्षणिक एवं आर्थिक उपाय: आयोग ने केवल आरक्षण ही नहीं, बल्कि छात्रवृत्ति, प्रशिक्षण, कोचिंग और अन्य सहायता कार्यक्रमों की सिफारिश की ताकि अवसरों की असमानता की बहुआयामी समस्या को समग्रता से संबोधित किया जा सके और सामाजिक गतिशीलता सुनिश्चित हो।

(5) सामाजिक प्रतिक्रिया और बहस: मंडल रिपोर्ट के क्रियान्वयन ने व्यापक जन-आंदोलनों, विरोध और समर्थन की स्थितियाँ उत्पन्न कीं, जिससे ‘सामाजिक न्याय बनाम योग्यता’ की बहस ने गति पकड़ी और यह विषय भारत के राजनीतिक विमर्श के केंद्र में स्थापित हो गया।

आरक्षण नीति भारतीय समाज की बहुस्तरीय विषमताओं के निवारण हेतु एक संवैधानिक उत्तर है। यद्यपि यह प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करता है, लेकिन फिर भी इसकी न्यायसंगतता, सीमाएँ और प्रभावशीलता पर सतत समीक्षा आवश्यक है ताकि सामाजिक न्याय और योग्यता में संतुलन बना रहे।

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